vinod upadhyay

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बुधवार, 12 मार्च 2014

महाभारत सीरीज़-8 में अब तक आपने पढ़ा कि गंधर्वों ने जब दुर्योधन को बंदी बना लिया और पांडवों ने उसे बचाया तो दुर्योधन स्वयं को अपमानित महसूस करने लगा। अपने अपमान से दु:खी होकर दुर्योधन ने आत्महत्या करने की सोची। यह बात जब पातालवासी राक्षसों को पता चली तो उन्होंने गुप्त रूप से दुर्योधन को समझाया और आत्महत्या न करने के लिए कहा। हस्तिनापुर लौटने पर कर्ण ने दुर्योधन की सहमति से दिग्विजय यात्रा की और पृथ्वी के अनेक राजाओं को हरा दिया। कर्ण की विजय से प्रसन्न होकर दुर्योधन ने बहुत बड़ा यज्ञ किया। इधर एक दिन जब पांडव द्रौपदी को आश्रम में अकेला छोड़कर वन में गए हुए थे। तभी वहां सिंधु देश का राजा जयद्रथ आया। वह कौरवों की बहन दु:शला का पति था। उसने आश्रम में द्रौपदी को अकेला पाकर उसका हरण कर लिया। जब पांडवों को यह पता लगा तो उन्होंने जयद्रथ को घेरकर बंदी बना लिया और उसका सिर मूंडकर पांच चोटियां बना दी। जयद्रथ ने पांडवों का नाश करने के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान दिया कि केवल एक दिन के लिए वह अर्जुन को छोड़ शेष चार पांडवों को युद्ध में पीछे हटा सकता है।
सूर्यदेव ने सपने में कर्ण को बताई गुप्त बात
- जब पांडवों के वनवास के 12 वर्ष बीत गए और 13वां वर्ष शुरु हुआ तो देवराज इंद्र ने सोचा कि युद्ध में कर्ण ही अर्जुन की बराबरी कर सकता है। कर्ण के पास सूर्यदेव के कवच-कुंडल हैं, जिसके रहते उसका वध असंभव है। तब इंद्र ने कर्ण से कवच-कुंडल दान में मांगने का विचार किया। यह बात सूर्यदेव को पता चल गई। पुत्रस्नेह के कारण वे एक ब्राह्मण के रूप में कर्ण के सपने में आए और उसे समझाया कि पांडवों के हितैषी देवराज इंद्र तुमसे कवच-कुंडल दान में मांगने आएंगे। यदि तुम उन्हें ये कवच-कुंडल दान में दे दोगे तो तुम्हारी आयु कम हो जाएगी। अत: तुम इंद्र को ये कवच-कुंडल मत देना। कर्ण ने कहा कि यदि कोई भिक्षा में मेरे प्राण भी मांगे तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा। देवराज इंद्र ने यदि मुझसे कवच-कुंडल मांगे, तो मैं अवश्य उन्हें ये दे दूंगा, क्योंकि प्राणों की रक्षा से अधिक जरूरी है यश की रक्षा करना। कर्ण की बात सुनकर सूर्यदेव बोले कि अगर ऐसा ही है तो देवराज इंद्र को कवच-कुंडल देने से पहले तुम उनसे शत्रुओं का नाश करने वाली अमोघ शक्ति मांग लेना। कर्ण ने स्वप्न में ही सूर्यदेव की बात मान ली।
इंद्र ने कर्ण से ऐसे प्राप्त किए कवच-कुंडल
- एक दिन देवराज इंद्र ब्राह्मण का रूप धारण कर कर्ण के पास आए और भिक्षा मांगने लगे। कर्ण ने ब्राह्मण रूपी इंद्र से इच्छानुसार भिक्षा मांगने के लिए कहा। कर्ण की बात सुनकर देवराज इंद्र ने उससे कवच-कुंडल मांग लिए। ब्राह्मण की बात सुनकर कर्ण ने कहा कि ये कुंडल अमृतमय है। इनके रहते मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता। इसलिए आप इनके अतिरिक्त मुझसे और कुछ मांग लीजिए। कर्ण के ऐसा कहने पर भी ब्राह्मण ने कुछ और नहीं मांगा। तब कर्ण ने ब्राह्मण से कहा कि आप स्वयं देवराज इंद्र हैं, ये बात मैं जानता हूं। आप स्वयं मुझसे याचना कर रहे हैं। इसलिए मैं आपको अपने कवच-कुंडल अवश्य दूंगा, लेकिन इसके बदले आप को भी मुझे वह अमोघ शक्ति देनी होगी, जो महाभयंकर और महाविनाशकारी है। देवराज इंद्र ने कर्ण को वो अमोघ शक्ति दे दी और कहा कि इस शक्ति का प्रयोग तुम सिर्फ एक ही बार कर सकोगे। कर्ण ने देवराज इंद्र की बात मानकर वह अमोघ शक्ति ले ली और कवच-कुंडल इंद्र को दे दिए। नकुल से क्या कहा आकाशवाणी ने? - इधर पांडव काम्यकवन को छोड़कर द्वैतवन में आकर रहने लगे। इस वन में अनेक ब्राह्मण निवास करते थे। वे प्रतिदिन अग्निहोत्र कर अपने धर्म का पालन करते थे। एक दिन एक ब्राह्मण के अरणीसहित मंथनकाष्ठ (यज्ञ में अग्नि उत्पन्न करने वाला लकड़ियों से बना एक यंत्र) एक हिरन ले भागा। ब्राह्मण ने जाकर पांडवों को अपनी समस्या बताई और कहा कि आप मुझे वह मंथनकाष्ठ ला दीजिए ताकि मैं समय पर अग्निहोत्र कर सकूं। ब्राह्मण की बात सुनकर युधिष्ठिर सहित सभी पांडव उस हिरन की खोज में निकल पड़े। बहुत प्रयास करने के बाद भी वह हिरन पांडवों के हाथ नहीं आया। घुमते-घुमते पांडव बहुत थक गए और एक पेड़ के नीचे बैठ गए। सभी को प्यास भी लग रही थी। युधिष्ठिर ने नकुल को सभी के लिए पानी लाने के लिए कहा। नकुल पानी की खोज करते-करते एक जलाशय के पास पहुंचे। ज्यों ही नकुल पानी पीने के लिए झुके, तभी आकाशवाणी हुई। आकाशवाणी ने नकुल से कहा कि इस जलाशय का जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर देने होंगे, लेकिन नकुल ने आकाशवाणी की बात न सुनते हुए जलाशय का पानी पी लिया। जलाशय का पानी पीते ही नकुल प्राणहीन होकर भूमि पर गिर पड़े।
आखिर क्यों पानी नहीं ला पाए सहदेव, अर्जुन और भीम?
- जब बहुत देर तक नकुल पानी लेकर नहीं लौटे तो युधिष्ठिर ने सहदेव से कहा कि नकुल को पानी लेने गए काफी समय हो गया है। अत: तुम जाओ और पानी लाने में नकुल का सहयोग करो। सहदेव भी पानी की खोज में उस दिशा में चल दिए, जिधर नकुल गए थे और उस जलाशय के पास पहुंच गए। अपने भाई को मृत अवस्था में देखकर सहदेव को बहुत शोक हुआ, लेकिन इस समय वे प्यास से पीड़ित थे। जैसे ही सहदेव पानी पीने के लिए जलाशय की ओर झुके, उस समय वही आकाशवाणी हुई। सहदेव ने भी आकाशवाणी की परवाह न करते हुए जलाशय का पानी पी लिया। पानी पीते ही वे भी प्राणहीन होकर धरती पर गिर पड़े। सहेदव के भी न लौटने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन को नकुल व सहदेव की खोज करने व पानी लेकर आने के लिए कहा। अर्जुन भी पानी की खोज करते हुए उसी जलाशय के पास पहुंचे। उनके साथ भी वही हुआ। जलाशय का पानी पीते ही वे भी मृत होकर धरती पर गिर पड़े। अंत में युधिष्ठिर ने भीम को भेजा। भीम ने जलाशय के पास जाकर अपने भाइयों के शव देखे तो उन्होंने सोचा कि ये काम अवश्य ही राक्षसों का है। राक्षसों से युद्ध करने से पहले मैं यह जल पी कर तृप्त हो जाता हूं। जैसे ही भीम जल पीने के लिए आगे बढ़े, उन्हें भी वही आकाशवाणी सुनाई दी। भीम ने भी आकाशवाणी की बात न मानते हुए उस जलाशय का जल पी लिया। जल पीते ही वे भी मृत होकर उसी स्थान पर गिर पड़े।
क्या-क्या प्रश्न पूछे यक्ष ने युधिष्ठिर से
- जब नकुल, सहदेव, अर्जुन व भीम में से कोई भी वापस न लौटा तो युधिष्ठिर को बड़ी चिंता हुई। वे भी अपने भाइयों की खोज करते हुए उस जलाशय पर पहुंच गए। अपने शूरवीर भाइयों को मृत अवस्था में देखकर युधिष्ठिर को बहुत दु:ख हुआ। युधिष्ठिर भी जलाशय का पानी पीने के लिए आगे बढ़े। तभी वही आकाशवाणी युधिष्ठिर को भी सुनाई दी। युधिष्ठिर के निवेदन करने पर आकाशवाणी करने वाला यक्ष प्रकट हो गया। उसने युधिष्ठिर से कहा कि तुमने यदि मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर सही दिए तो तुम इस सरोवर का पानी पी सकते हो। युधिष्ठिर ने कहा आप मुझसे प्रश्न कीजिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनके उत्तर दूंगा।
यक्ष- सूर्य को कौन उदित करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे अस्त कौन करता है और वह किसमें प्रतिष्ठित है?
युधिष्ठिर- ब्रह्म सूर्य को उदित करता है। देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।
यक्ष- पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊंचा क्या है? वायु से भी तेज चलने वाला क्या है और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है?
युधिष्ठिर- माता भूमि से भी भारी (बढ़कर) है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है और चिंता तिनकों से भी बढ़कर है।
यक्ष- सो जाने पर पलक कौन नहीं मूंदता? उत्पन्न होने पर भी चेष्ठा कौन नहीं करता? ह्रदय किसमें नहीं है और वेग से कौन बढ़ता है?
युधिष्ठर- मछली सोने पर भी पलक नहीं मूंदती। अंडा उत्पन्न होने पर भी चेष्ठा नहीं करता। पत्थर में ह्रदय नहीं होता और नदी वेग से बढ़ती है।
यक्ष- विदेश में जाने वाला मित्र कौन है? घर में रहने वाले का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है और मृत्यु के समीप पहुंचे हुए पुरुष का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर- साथ के यात्री विदेश में जाने वाले के मित्र हैं। स्त्री घर में रहने वाले की मित्र है। वैद्य रोगी का मित्र है और दान मरने वाले पुरुष का मित्र है।
यक्ष- समस्त प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है और यह सारा जगत क्या है?
युधिष्ठिर- अग्नि समस्त प्राणियों का अतिथि है। गाय का दूध अमृत है। अविनाशी नित्यधर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत है। इस प्रकार यक्ष ने युधिष्ठिर से बहुत से प्रश्न पूछे। युधिष्ठिर ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर बिल्कुल सही दिए।
कैसे पुनर्जीवित हो गए चारों पांडव
- युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तरों को सुनकर यक्ष बहुत प्रसन्न हुआ और उसने युधिष्ठिर से कहा कि यहां तुम्हारे चार भाई मृत अवस्था में पड़े हैं। इनमें से जिसे तुम कहोगे, उस एक भाई को मैं जीवित कर दूंगा। यक्ष की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष से कहा कि आप इन सभी में से नकुल को जीवित कर दीजिए। तब यक्ष बोला कि भीमसेन में 10 हजार हाथियों का बल है और अर्जुन को युद्ध में कोई जीत नहीं सकता। फिर भी तुम इन दोनों को छोड़कर नकुल को क्यों जीवित करना चाहते हो? तब युधिष्ठिर ने यक्ष से कहा कि मेरे पिता स्वर्गीय पांडु की दो पत्नियां थीं। दोनों की ही संतान जीवित रहे, ऐसी मेरी इच्छा है। इसलिए मैं माता माद्री के पुत्र नकुल को जीवित करना चाहता हूं। युधिष्ठिर की बात सुनकर यक्षदेव बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने नकुल सहित, भीमसेन, अर्जुन और सहदेव को भी जीवित कर दिया।
यक्ष के रूप में किसने ली थी पांडवों की परीक्षा
- सभी भाइयों के जीवित हो जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष से उसका वास्तविक परिचय पूछा। युधिष्ठिर की बात सुनकर यक्ष ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर कहा कि मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूं। तुम्हें देखने के लिए ही यहां आया हूं। तुम्हें धर्म का संपूर्ण ज्ञान है, यह देखकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। अत: तुम मुझसे कोई भी वर मांग लो। धर्मराज के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने कहा कि जिस ब्राह्मण के अरणीसहित मंथनकाष्ट को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र का लोप न हो। धर्मराज ने युधिष्ठिर को वह वर दे दिया। इसके बाद धर्मराज ने दूसरा वर मांगने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने कहा कि हम 12 वर्ष तक वन में रहे। अब तेरहवां वर्ष आ गया है। अत: आप ऐसा वर दीजिए कि हमें कोई पहचान न सके। धर्मराज ने युधिष्ठिर को यह वर भी दे दिया। ये वरदान देकर धर्मराज अपने लोक लौट गए। पांडव भी आश्रम लौट आए और उन्होंने उस ब्राह्मण को उसकी अरणी दे दी।
अज्ञातवास काटने के लिए कहां गए पांडव
- एक दिन पांडव अपने आश्रम में तपस्वियों के साथ बैठे थे। उस समय पांडवों ने तपस्वियों से कहा कि हम 12 वर्ष तक इन वनों में रहे हैं। अब हमारे अज्ञातवास का तेरहवां वर्ष शेष है। इसमें हम छिपकर रहेंगे। इसके लिए हमें किसी दूसरे राष्ट्र में जाना होगा। अत: आप हमें प्रसन्नता से किसी अन्य स्थान पर जाने की आज्ञा प्रदान करें। पांडवों के ऐसा कहने पर तपस्वियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और जाने की आज्ञा भी दे दी। तपस्वियों की आज्ञा लेकर पांडव वहां से चल दिए। थोड़ी दूर आकर पांडव अज्ञातवास के बारे में सलाह करने लगे। युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि तुम अपनी रुचि के अनुसार कोई अच्छा सा स्थान बताओ, जहां हम सब चलकर एक वर्ष तक रह सकें और शत्रुओं को इसकी खबर भी न हो। युधिष्ठिर के कहने पर अर्जुन ने ऐसे अनेक राष्ट्रों के बारे में बताया, जहां आसानी से अज्ञातवास काटा जा सकता था। तब युधिष्ठिर ने कहा कि इन देशों में से मत्स्यदेश का राजा विराट बहुत बलवान है। वह उदार, धर्मात्मा और वृद्ध भी है। इसलिए मत्स्यदेश में रहना ही इस समय सबसे अनुकूल है। सर्वसम्मति से विचार करने के बाद पांचों पांडव द्रौपदी के साथ विराट नगर की ओर चल पड़े।
विराट नगर पहुंचने से पहले पांडवों ने क्या योजना बनाई
- विराट नगर पहुंचने से पहले पांडवों ने इस बात पर विचार किया कि वहां रहकर कौन, क्या कार्य करेगा।
धर्मराज युधिष्ठिर बोले- मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूं और वह खेल मुझे पसंद भी है। इसलिए मैं कंक नामक ब्राह्मण बनकर राजा के पास जाऊंगा और उनकी राजसभा का एक सभासद् बनकर रहूंगा।
भीमसेन ने कहा- मैं रसोई बनाने में चतुर हूं। अत: मैं बल्लव नामक रसोइया बनकर राजा की रसोई में काम करुंगा।
अर्जुन ने कहा- मैं हाथों में शंख तथा हाथी दांत की चूड़ियां पहनकर सिर पर चोटी गूंथ लूंगा और स्वयं को नपुंसक घोषित कर बृहन्नला नाम बताऊंगा। मेरा काम होगा, राजा विराट की अंत:पुर की स्त्रियों को संगीत और नृत्यकला की शिक्षा देना। इस तरह मैं नर्तकी के रूप में स्वयं को छिपाए रखूंगा।
नकुल ने कहा- मुझे अश्वविद्या की विशेष जानकारी है। घोड़ों को चाल सिखलाना, उनका पालन करना और चिकित्सा करना भी मुझे आता है। अत: मैं राजा के यहां ग्रंथिक नामक अश्वपाल बनकर रहूंगा
सहदेव ने कहा- मैं राजा विराट की गायों की देखभाल करुंगा। गायों के जो लक्षण या शुभ संकेत होते हैं, उनका मुझे अच्छा ज्ञान है। मेरा नाम होगा तंतिपाल। इस रूप में मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्य से राजा को प्रसन्न कर लूंगा।
द्रौपदी ने कहा- जो स्त्रियां दूसरों के घर सेवा के कार्य करती है, उन्हें सैरन्ध्री कहते हैं। अत: मैं सैरन्ध्री कहकर अपना परिचय दूंगी। बालों के श्रंगार का कार्य मैं अच्छी तरह से जानती हूं। इस रूप में मुझे कोई पहचान नहीं पाएगा।
पांडवों ने अपने शस्त्र कहां छिपाए
- विराट नगर जाने के लिए पांडव यमुना के निकट पहुंचकर उसके दक्षिण किनारे से चलने लगे। पर्वत, गुफा, जंगलों से होते हुए पांडव मत्स्यदेश जा पहुंचे। आगे बढ़ते हुए पांडव विराट नगर की राजधानी तक पहुंच गए। नगर में प्रवेश से पहले युधिष्ठिर ने अर्जुन से अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित स्थान पर रखने के लिए कहा। तब अर्जुन को श्मशान भूमि के निकट एक टीले पर शमी का घना पेड़ दिखाई दिया। अर्जुन को वह पेड़ शस्त्र छिपाने के लिए उचित लगा। अर्जुन ने सभी के शस्त्र लेकर उसकी एक पोटली बनाई और नकुल ने उसे ले जाकर शमी वृक्ष पर ऐसे स्थान पर रख दिया, जहां उस पर वर्षा का पानी न गिरे। यह सब करने के बाद पांचों भाइयों ने अपना गुप्त नाम भी रखे, जो क्रमश: इस प्रकार है- जय, जयंत, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। इसके बाद पांडवों ने द्रौपदी सहित विराट नगर में प्रवेश किया।
क्यों हुई भीम, अर्जुन, नकुल व सहेदव की मृत्यु?
महाभारत सीरीज़-9 में आगे पढ़िए देवराज इंद्र ने किस प्रकार कर्ण से कवच-कुंडल प्राप्त किए। एक प्रसंग के अनुसार जब पांचों पांडव किसी कार्य से वन में जाते हैं, तो उन्हें बहुत प्यास लगती है। युधिष्ठिर के कहने पर नकुल पानी लेने जाते हैं, लेकिन जलाशय का पानी लेने से पहले यक्ष रूपी धर्मराज उनसे कुछ प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहते हैं। नकुल उनकी बात को अनसुना कर जलाशय का पानी पी लेते हैं। पानी पीते ही तत्काल नकुल की मृत्यु हो जाती है। सहदेव, अर्जुन और भीम के साथ भी यही होता है। अंत में युधिष्ठिर उस जलाशय पर पहुंचते हैं और यक्ष रूपी धर्मराज के सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं। प्रसन्न होकर धर्मराज भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव को पुनर्जीवित कर देते हैं।
महाभारत सीरीज़-9 में अब तक आपने पढ़ा कि देवराज इंद्र ने ब्राह्मण के रूप में कर्ण से कवच-कुंडल प्राप्त कर लिए। धर्मराज ने पांडवों की परीक्षा ली। इसमें भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव की मृत्यु हो गई। युधिष्ठिर ने धर्मराज के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने चारों पांडवों को पुनजीर्वित कर दिया। पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में रूप बदलकर रहने का निश्चय किया। विराट नगर में प्रवेश से पहले पांडवों ने अपने शस्त्र एक शमी वृक्ष के ऊपर छिपा दिए और नगर में प्रवेश किया।
महाभारत सीरीज़-10 में आगे पढ़िए विराट नगर में पांडव किस रूप में रहे व किसने क्या कार्य किया? महाभारत के विराट पर्व के अनुसार द्रौपदी सैरंध्री के रूप में विराट नगर की रानी सुदेष्ण की सेवा करती थी। एक दिन विराट नगर के सेनापति कीचक ने द्रौपदी को देखा और उस पर मोहित हो गया। उसने द्रौपदी के साथ दुराचार करने का प्रयास भी किया, लेकिन भाग्यवश द्रौपदी बच गई। तब द्रौपदी ने भीम से कीचक का वध करने के लिए कहा। भीम ने योजना बनाकर कीचक का वध कर दिया। जब कीचक के भाइयों को इस बात का पता चला तो उन्होंने द्रौपदी को इसका जिम्मेदार बताया और कीचक के शव के साथ उसे भी जलाने के लिए श्मशान भूमि तक ले गए। वहां भीम ने उन सभी का वध कर दिया और द्रौपदी को उनके बंधन से मुक्त कर दिया।
युधिष्ठिर, भीम और द्रौपदी ने किया विराट नगर में
1- विराटनगर में प्रवेश करने के बाद सबसे पहले युधिष्ठिर वेष बदलकर राजा विराट के दरबार में गए। परिचय पूछने पर युधिष्ठिर ने राजा विराट को बताया कि मैं एक ब्राह्मण हूं, मेरा नाम कंक है। मेरा सबकुछ लुट चुका है। इसलिए मैं जीविका के लिए आपके पास आया हूं। जुआ खेलने वालों में पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। अत: आप मुझे अपने दरबार में उचित स्थान प्रदान करें। युधिष्ठिर की बात सुनकर राजा विराट ने उन्हें अपना मित्र बना लिया और राजकोष व सेना आदि की जिम्मेदारी भी सौंप दी। इसके बाद भीम राजा विराट की सभा में आए। उनके हाथ में चमचा, करछी, और साग काटने के लिए एक लोहे का छुरा था। उन्होंने अपना परिचय एक रसोइए के रूप में दिया और अपना नाम बल्लव बताया। राजा ने भीम को भोजनशाला का प्रधान अधिकारी बना दिया। इस प्रकार युधिष्ठिर और भीम को कोई पहचान न सका। इसके बाद द्रौपदी सैरंध्री का वेष बनाकर दुखिया की तरह विराट नगर में भटकने लगी। उसी समय राजा विराट की पत्नी सुदेष्ण की नजर महल की खिड़की से उस पर पड़ी। उन्होंने द्रौपदी को बुलवाया और उसका परिचय पूछा। द्रौपदी ने स्वयं को काम करने वाली दासी बताया और कहा कि मैं बालों को सुंदर बनाना और गूंथना जानती हूं। चंदन या अनुराग भी बहुत अच्छा तैयार करती हूं। भोजन तथा वस्त्र के सिवा और कुछ पारिश्रमिक नहीं लेती। द्रौपदी की बात सुनकर रानी सुदेष्ण ने उसे अपने पास रख लिया।
सहदेव, अर्जुन और नकुल किस वेष में गए राजा विराट के सामने
2- कुछ समय बाद सहदेव भी ग्वाले का वेष बनाकर राजा विराट के पास गए। राजा ने सहदेव से उनका परिचय पूछा। सहदेव ने स्वयं को तंतिपाल नाम का ग्वाला बताया और कहा कि चालीस कोस के अंदर जितनी गाएं रहती हैं, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमान काल की संख्या मुझे सदा मालूम होती है। जिन उपायों से गायों की संख्या बढ़ती रहे तथा उन्हेें कोई रोग आदि न हो, वे सब भी मुझे अच्छे से आते हैं। सहदेव की योग्यता देखकर राजा विराट ने उन्हें पशुओं की देखभाल करने वालों का प्रमुख बना दिया। कुछ समय बाद अर्जुन बृहन्नला (नपुंसक) के रूप में राजा विराट की सभा में गए और कहा कि मैं नृत्य और संगीत की कला में निपुण हूं। अत: आप मुझे राजकुमारी उत्तरा को इस कला की शिक्षा देने के लिए रख लें। राजा विराट ने अर्जुन को भी अपनी सेवा में रख लिया। इसके बाद नकुल अश्वपाल का वेष धारण कर राजा विराट की सभा में आए। उन्होंने अपना परिचय ग्रंथिक के रूप में दिया। राजा विराट ने अश्वों से संबंधित ज्ञान देखकर उन्हें घोड़ों और वाहनों की देखभाल करने वालों का प्रमुख बना दिया। इस प्रकार पांचों पांडव व द्रौपदी अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में रहने लगे।
भीम ने हराया था इस पराक्रमी पहलवान को
3- पांडवों को विराट नगर में रहते हुए जब तीन महीने बीत गए और चौथा महीना शुरु हुआ, उस समय मत्स्यदेश में ब्रह्ममहोत्सव नाम का एक बहुत बड़ा समारोह हुआ। इस समारोह में हजारों पहलवान एकत्रित हुए। उनमें से एक पहलवान का नाम जीमूत था। वह बहुत पराक्रमी था। उसने अखाड़े में उतरकर एक-एक करके सभी पहलवानों को लड़ने के लिए बुलाया, लेकिन उसका बलशाली शरीर देखकर किसी भी पहलवान की हिम्मत उसके पास जाने की नहीं हुई। जब कोई भी पहलवान जीमूत से लड़ने को तैयार नहीं हुआ तो राजा विराट ने अपने रसोइए बल्लव (भीम) को उसके साथ लड़ने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा पाकर भीम ने अखाड़े में प्रवेश किया। भीम और जीमूत में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने जीमूत को सौ बार घुमाया और पृथ्वी पर ऐसा पटका कि उसके प्राण निकल गए। यह देखकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भीम के बल-पराक्रम की खूब प्रशंसा की। इधर अर्जुन अपने नाचने, गाने की कला से राजा तथा उनके अंत:पुर की स्त्रियों को प्रसन्न रखते थे। इसी प्रकार नकुल न सहदेव भी अपने-अपने कार्यों से राजा विराट को संतुष्ट रखते थे।
द्रौपदी का रूप देखकर मोहित हो गया था सेनापति कीचक
4- पांडवों को विराट नगर में रहते हुए दस महीने बीत गए। एक दिन राजा विराट के सेनापति कीचक, जो उनका साला भी था, कि नजर महारानी सुदेष्ण की सेवा कर रही सैरंध्री (द्रौपदी) पर पड़ी। द्रौपदी का रूप देखकर कीचक उस पर मोहित हो गया। कीचक ने द्रौपदी के सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन द्रौपदी ने इनकार कर दिया। द्रौपदी ने कहा कि पांच गंधर्व मेरे पति हैं, वे बड़े भयानक हैं और सदा मेरी रक्षा करते हैं। अत: तू अपना विचार त्याग दे, नहीं तो मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे। द्रौपदी की बात सुनकर कीचक अपनी बहन महारानी सुदेष्ण के पास गया और पूरी बात बताई। कीचक की बात सुनकर महारानी सुदेष्ण ने कहा कि मैं सैरंध्री (द्रौपदी) को अकेले में तुम्हारे पास भेज दूंगी। तुम उसे समझा-बुझाकर प्रसन्न कर लेना। तब कीचक वहां से चला गया। द्रौपदी कैसे बची कीचक से
5- इस घटना के कुछ दिन बाद महारानी सुदेष्ण ने द्रौपदी से कहा कि मुझे बड़ी प्यास लगी है। तुम कीचक के घर जाओ और वहां से पीने योग्य रस ले आओ, लेकिन द्रौपदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। महारानी सुदेष्ण के आश्वासन देने पर द्रौपदी कीचक के महल में गई। मन ही मन द्रौपदी ने सूर्यदेव का स्मरण किया। सूर्यदेव ने द्रौपदी की रक्षा के लिए गुप्त रूप से एक राक्षस भेजा। द्रौपदी डरते हुए कीचक के महल में गई। कीचक ने द्रौपदी को अकेला पाकर उसके साथ दुराचार करने का प्रयास किया। तब सूर्यदेव द्वारा नियुक्त राक्षस ने उसे उठाकर दूर फेंक दिया। द्रौपदी दौड़कर राजसभा में चली गई और उसने पूरी बात राजा विराट को बताई। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीम भी बैठे थे। भीमसेन उसी समय कीचक का वध करना चाहते थे, लेकिन युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। युधिष्ठिर के कहने पर द्रौपदी महारानी सुदेष्ण के महल में चली गई। वहां जाकर उसने महारानी सुदेष्ण को पूरी बात बताई।
भीम ने बनाई थी कीचक को मारने की योजना
6- उसी रात द्रौपदी गुप्त रूप से भीम के पास गई और कीचक का वध करने के लिए कहा। भीम ने द्रौपदी से कहा कि राजा विराट ने जो नृत्यशाला बनवाई है, वहां रात के समय कोई नहीं जाता। तुम कीचक को किसी बहाने से वहां बुलवा लो। मैं वहीं कीचक का वध कर डालूंगा। दूसरे दिन द्रौपदी ने ऐसा ही किया और कीचक को रात के समय नृत्यशाला में आने के लिए कहा। रात को कीचक के आने से पहले ही भीम नृत्यशाला में रखे पलंग पर जाकर छिप गए। थोड़ी देर बाद कीचक भी वहां आ गया। उस समय नृत्यशाला में अंधेरा था। कीचक को लगा कि पलंग पर सैरंध्री सो रही है। जैसे ही कीचक पलंग के पास पहुंचा, उसी समय भीम उठकर खड़े हो गए। भीम और कीचक में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने कीचक को पशु की भांति मार डाला। यह देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हुई और नृत्यशाला की रखवाली करने वालों से कहा कि देखो, वहां कीचक का शव पड़ा है। मेरे गंधर्व पतियों ने ही उसका वध किया है।
कीचक के भाई जिंदा जलाना चाहते थे द्रौपदी को
7- सुबह होते-होते कीचक की मृत्यु की खबर महल में तेजी से फैल गई। कीचक के भाई भी वहां एकत्रित हो गए और विलाप करने लगे। तभी उनकी दृष्टि सैरंध्री(द्रौपदी) पर पड़ी। द्रौपदी को देखकर उन्होंने बोला कि इसी के कारण कीचक की ये अवस्था हुई है। इसलिए कीचक के साथ इसको भी जला देना चाहिए। यह विचार कर कीचक के भाइयों ने द्रौपदी को पकड़ लिया और उसे भी श्मशान भूमि की ओर ले गए। द्रौपदी का विलाप सुनकर भीम पहले ही श्मशान भूमि पहुंच गए। वहां एक बहुत विशाल पेड़ था। भीम ने उसे उखाड़ लिया और कीचक के भाइयों को मारने दौड़े। भीम को विशाल वृक्ष उठाए अपनी ओर आते देख कीचक के भाई डरकर भागने लगे, लेकिन भीम ने सभी का वध कर दिया। भीम के कहने पर द्रौपदी पुन: महल लौट आई। भीम भी दूसरे रास्ते से राजा विराट की रसोई में पहुंच गए। क्यों डर गए राजा विराट
8- राजा विराट को जब कीचक के सभी भाइयों की मृत्यु का समाचार मिला तो वे बहुत डर गए। उन्होंने अपनी पत्नी रानी सुदेष्ण से कहा कि अब सैरंध्री का यहां रहना उचित नहीं है। सैंरध्री के गंधर्व पति क्रोधित होकर कहीं हमें ही नष्ट न कर दें। जब द्रौपदी पुन: महल आई तो रानी सुदेष्ण के पास जाकर खड़ी हो गई। तब रानी सुदेष्ण ने उसे किसी दूसरे नगर में जाने के लिए कहा तथा राजा विराट द्वारा कही पूरी बात बता दी। रानी सुदेष्ण की बात सुनकर द्रौपदी बोली कि सिर्फ 13 दिन और मैं आपके साथ इस महल में निवास करूंगी। उसके बाद मेरे गंधर्व पति स्वयं मुझे यहां से ले जाएंगे और आपका भी हित करेंगे।
दुर्योधन को किसने उकसाया विराट नगर पर हमला करने के लिए
9- इधर हस्तिनापुर में दुर्योधन ने पांडवों की खोज में जो गुप्तचर भेजे थे, वे पांडवों को नहीं ढूंढ पाए। यह देखकर दुर्योधन सोचने लगा कि यदि पांडवों ने अज्ञातवास पूरा कर लिया तो वे पुन: हस्तिनापुर लौट आएंगे और अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। इस समय दुर्योधन के साथ कर्ण, दु:शासन, त्रिगर्तदेश के राजा सुशर्मा, शकुनि आदि उपस्थित थे। उसी समय राजा सुशर्मा ने कीचक के वध की बात दुर्योधन को बताई और कहा कि कीचक का वध होने से राजा विराट कमजोर हो गया है। यदि हम इस समय उस पर आक्रमण करें तो निश्चित ही हमारी जीत होगी और राजा विराट को जीतकर जो रत्न, धन, गांव हम जीतेंगे, उसे आपस में बांट लेंगे। दुर्योधन को राजा सुशर्मा का यह प्रस्ताव पसंद आया और उसने योजना बनाई कि विराट नगर पर दोनों ओर से हमला करेंगे। एक ओर की सेना का नेतृत्व राजा सुशर्मा करेंगे, जबकि दूसरी ओर की सेना का नृतत्व कौरव करेंगे। पहले राजा सुशर्मा विराट नगर पर चढ़ाई करेंगे और उसके दूसरे दिन कौरव सेना। इस प्रकार योजना बनाकर दुर्योधन आदि युद्ध की तैयारी करने लगे।
युद्ध में किसने बचाए थे राजा विराट के प्राण
10- योजना के अनुसार पहले त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा ने विराट नगर पर चढ़ाई की और बहुत सी गाएं कैद कर ली। जब राजा विराट को यह पता चला तो वे भी अपनी सेना लेकर युद्ध भूमि में आ गए। राजा विराट कंक (युधिष्ठिर), बल्लव (भीम), तंतिपाल (सहदेव) व ग्रंथिक (नकुल) की योग्यता देखकर उन्हें भी अपने साथ युद्ध करने के लिए ले आए। राजा विराट और राजा सुशर्मा की सेना में भयंकर युद्ध हुआ। राजा सुशर्मा ने राजा विराट के अंगरक्षकों का वध कर दिया और उन्हें अपने रथ में डालकर ले जाने लगा।
यह देखकर युधिष्ठिर ने भीम से राजा विराट की रक्षा करने के लिए कहा। तब भीम और राजा सुशर्मा के बीच युद्ध होने लगा। भीम ने सुशर्मा के अंगरक्षक सहित बहुत से सैनिकों का वध कर दिया। अंत में भीम ने सुशर्मा को बंदी बना लिया और राजा विराट को मुक्त कर दिया। सुशर्मा को बंदी बनाकर भीम युधिष्ठिर के पास ले गए। युधिष्ठिर ने उसे जीवन दान देकर मुक्त कर दिया। इस प्रकार पांडवों की सहायता से राजा विराट ने वह युद्ध जीत लिया।

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