vinod upadhyay

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बुधवार, 12 मार्च 2014

महाभारत सीरीज-6 में अब तक आपने पढ़ा कि अर्जुन के स्वर्ग जाने के बाद युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव और द्रौपदी विभिन्न तीर्थों की यात्रा करते हुए बदरिकाश्रम पहुंच गए और वहीं रहने लगे। एक दिन पांडवों के आश्रम में एक सुंदर कमल का फूल उड़ता हुआ आया। द्रौपदी ने भीमसेन से ऐसे और फूल लाने के लिए कहा। भीमसेन कमल पुष्प की खोज में गंधमादन पर्वत की ओर चल दिए। रास्ते में भीम को पवनपुत्र हनुमान ने दर्शन दिए। उन्होंने भीम को वरदान दिया कि जब कौरवों और पांडवों में युद्ध होगा तब वह अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठ जाएंगे और ऐसी भीषण गर्जना करेंगे कि शत्रुओं के प्राण सूख जाएंगे और तब उन्हें आसानी से मारा जा सकेगा। कमल पुष्प की खोज में भीमसेन कुबेरजी के राजमहल के पास स्थित सरोवर तक पहुंच गए। जब भीमसेन उस सरोवर से फूल लेने लगे तो उस सरोवर के रक्षक यक्ष और राक्षसों ने भीम पर हमला कर दिया। भीमसेन ने भी उन पर हमला कर उन्हें पराजित कर दिया। पता चलने पर युधिष्ठिर आदि भाई भी वहां पहुंच गए। पांडव आदि कुछ समय तक वहीं रुके और पुन: बदरिकाश्रम लौट आए। महाभारत सीरीज 7 में पढ़िए पांडव जब काम्यक वन आए तो उनकी भेंट भगवान श्रीकृष्ण से हुई। उनके साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थी। सत्यभामा के पूछने पर द्रौपदी ने अपनी दिनचर्या बताई और यह भी बताया कि वह किस प्रकार अपने पांचों पतियों को प्रसन्न रखती है। द्रौपदी ने सत्यभामा को बताया कि पत्नी को अपने पति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, जिससे उनका मन सदैव पत्नी के वश में रहे। जब युधिष्ठिर आदि पांडव बदरिकाश्रम में रह रहे थे, तभी एक दिन वहां एक राक्षस ब्राह्मण के वेष में आकर रहने लगा। उसका नाम जटासुर था। वह राक्षस पांडवों के शस्त्रों और द्रौपदी का हरण करना चाहता था। एक दिन जब भीमसेन आश्रम में नहीं थे, मौका पाकर वह राक्षस अपने मूल स्वरूप में आकर युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और सारे शस्त्रों का हरण कर ले जाने लगा। पता चलने पर भीमसेन उस राक्षस का पकड़ने दौड़े। थोड़ी दूर पर ही भीमसेन ने उस राक्षस को पकड़ लिया। भीमसेन और जटासुर के बीच भयंकर युद्ध हुआ। पहले तो दोनों में बाहुयुद्ध हुआ। इसके बाद दोनों ने वृक्ष उखाड़ कर एक-दूसरे पर हमला कर दिया। अंत में भीमसेन के हाथों जटासुर मारा गया। इसके बाद सभी पांडव, द्रौपदी के साथ आश्रम लौट आए। इस प्रकार वहां रहते हुए पांडवों के वनवास के पांच वर्ष पूर्ण हो गए।
एक दिन जब भीमसेन एकांत में बैठे थे। तब द्रौपदी ने उनसे कहा कि इस पर्वत पर अनेक राक्षस निवास करते हैं। यदि वे सब यह पर्वत छोड़कर भाग जाएं तो कैसा रहे। भीमसेन द्रौपदी की बात समझ गए और अपने शस्त्र उठाकर गंधमादन पर्वत पर बेखटके आगे बढ़ने लगे। पर्वत की चोटी पर जाकर वे कुबेर के महल को देखने लगे। तभी भीमसेन ने अपने शंख से भयानक ध्वनि की। शंख की ध्वनि सुन यक्ष और राक्षसों ने भीमसेन पर हमला कर दिया। भीमसेन ने अकेले ही उन सभी को पराजित कर दिया। वहीं कुबेर का मित्र मणिमान नाम का राक्षस रहता था। उसके और भीम के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। भीमसेन ने उसका भी वध कर दिया। युद्ध की आवाजें सुनकर युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव भी भीमसेन के पास पहुंच गए। जब कुबेरजी को पता चला कि भीमसेन ने एक बार फिर उनके क्षेत्र में आकर उनके सेवकों को मारा है तो बहुत क्रोधित हो गए और अपने रथ पर सवार होकर उस ओर चल दिए। वहां पहुंचकर जब कुबेरजी ने युधिष्ठिर को देखा तो उनका क्रोध शांत हो गया। उन्होंने कहा कि ये राक्षस तो अपने काल से ही मरे हैं। भीमसेन तो सिर्फ निमित्त मात्र हैं। कुबेर ने बताया कि आपका भाई अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो गया है और वह जल्दी आप लोगों से मिलेगा। पांडवों ने वह रात कुबेरजी के महल में ही बिताई।
सुबह होने पर पांडव पुन: महर्षि आष्र्टिषेण के आश्रम लौट आए और वहीं सुखपूर्वक निवास करने लगे। इधर, अर्जुन देवताओं से अस्त्रविद्या सीख कर और देवराज इंद्र से आज्ञा लेकर प्रसन्नतापूर्वक गंधमादन पर्वत लौट आए। अर्जुन देवराज इंद्र के रथ से पर्वत पर पहुंचे। अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी सहित अन्य ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन ने संक्षेप में महादेव से युद्ध व अपने स्वर्ग प्रवास की बहुत-सी रोचक बातें अपने भाइयों को बताई। अगले दिन जब सभी पांडव उठे, उसी समय वहां देवराज इंद्र आ गए और उन्होंने कहा कि अर्जुन ने उनसे सावधानीपूर्वक सब शस्त्र प्राप्त कर लिए हैं। अब इससे कोई नहीं जीत सकता। उन्होंने पांडवों से काम्यक वन लौट जाने को कहा। ऐसा कहकर देवराज इंद्र पुन: स्वर्ग लौट गए। अर्जुन के स्वर्ग से लौटने पर पांडवों ने थोड़ा और समय गंधमादन पर्वत पर बिताया। अर्जुन वहां रहकर अस्त्र चलाने का अभ्यास किया करते थे। इस तरह चार वर्ष और बीत गए। पहले 6 और बाद में 4 वर्ष। इस प्रकार पांडवों के वनवास के कुल 10 वर्ष सूखपूर्वक बीत गए। इसके बाद पांडवों ने आगे की यात्रा शुरू की। चीन, तुषार, दरद और कुलिंद देशों को पार कर पांडव राजा सुबाहु के राज्य में पहुंचे। यहां पांडवों ने एक वर्ष व्यतीत किया। आगे की यात्रा करते हुए पांडव काम्यक वन पहुंच गए और वहीं रहने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण को पता चला कि पांडव काम्यक वन में रह रहे हैं तो वे उनसे मिलने आए। भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थीं। श्रीकृष्ण पांडवों से बड़े प्रेम से मिले। जब पांडवों और श्रीकृष्ण में चर्चा चल रही थी, उस समय सत्यभामा और द्रौपदी भी बातें कर रहीं थीं। बातों ही बातों में सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा कि तुम्हारे पति बहुत ही शूरवीर हैं, तुम इन सभी के साथ कैसा व्यवहार करती हो, जिससे वे तुम पर कभी क्रोधित नहीं होते और सदैव तुम्हारे वश में रहते हैं।
सत्यभामा की बात सुनकर द्रौपदी ने बताया कि वह अहंकार, काम, क्रोध को छोड़कर पांडवों की सेवा करती है। कटु वचन नहीं बोलती, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, बुरी बातें नहीं सुनती, बुरी जगहों पर नहीं बैठती। देवता, मनुष्य, गंधर्व, धनी अथवा रूपवान, कैसा भी पुरुष हो, पांडवों के अतिरिक्त और किसी के प्रति उसका मन नहीं झुकता। अपने पतियों के भोजन किए बिना भोजन नहीं करती। उनके स्नान किए बिना स्नान नहीं करती और उनके बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। द्रौपदी ने कहा कि वह घर के बर्तनों को मांज-धोकर साफ रखती है, स्वादिष्ट भोजन बनाती है। पतियों को समय पर भोजन कराती है। घर को साफ रखती है। बातचीत में भी किसी का तिरस्कार नहीं करती। कुलटा स्त्रियों के पास नहीं फटकती। दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती। आलस्य से दूर रहती है। वह अपने पतियों से अच्छा भोजन नहीं करती, उनकी अपेक्षा अच्छे वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी अपनी सास से वाद-विवाद करती है। जिस समय महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ में शासन करते थे, उस समय जो कुछ आमदनी, व्यय और बचत होती थी, उस सबका विवरण अकेली ही रखती थी। इस प्रकार पत्नी के लिए शास्त्रों में जो-जो बातें बताई गई हैं, वह उन सबका पालन करती है।
इसके बाद द्रौपदी ने सत्यभामा को पति के मन को अपने वश में करने का सरल मार्ग बताया- पत्नी के लिए पति के समान कोई दूसरा देवता नहीं है। जब तुम्हारे कानों में पतिदेव की आवाज पड़े तो तुम आंगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिए तैयार रहो और जब वे भीतर आ जाएं तो तुरंत ही आसन और पैर धोने के लिए जल देकर उनका सत्कार करो। पति की बातों को गुप्त रखो। पति के प्रियजनों का खास ध्यान रखो। कुलीन, दोषरहित और सती स्त्रियों के साथ ही मेल-जोल रखो। यदि पति काम के लिए दासी को आज्ञा दें तो तुम स्वयं ही उठकर उनके सब काम करो। जो कोई भी पति से वैर रखते हों, ऐसे लोगों से दूर रहो। सब तरह से अपने पतिदेव की सेवा करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य में वृद्धि होगी। इसके बाद सत्यभामा अपने पति श्रीकृष्ण के साथ पुन: द्वारका लौट गईं। इसके बाद पांडव द्वैतवन के समीप पवित्र सरोवर पर आकर रहने लगे। यहां रहकर पांडव ब्राह्मणों की सेवा में लगे रहते। पांडव द्वैतवन में आकर रहने लगे हैं यह बात शकुनि को भी पता लग गई। उसने जाकर यह बात कर्ण और दुर्योधन को भी बताई और कहा कि क्यों न हम खूब ठाट-बाट से द्वैतवन चलें, जिसे देखकर पांडवों को जलन होने लगे। शकुनि की बात सुनकर दुर्योधन ने कर्ण से कहा कि कोई ऐसा उपाय सोचो कि महाराज धृतराष्ट्र हमें द्वैतवन जाने की आज्ञा दे दें। दुर्योधन की बात सुनकर कर्ण आदि सभी किसी तरह द्वैतवन जाने की योजना के बारे में विचार करने लगे। अगले दिन कर्ण ने दुर्योधन को बताया कि इन दिनों आपकी गायें द्वैतवन में ही हैं और उनकी देखभाल करने वाले चरवाहे भी वहीं निवास कर रहे हैं। हम महाराज धृतराष्ट्र को यह बात बताएंगे और अपनी गायों को देखने, गिनती करने और उनकी स्थिति देखने के बहाने द्वैतवन आसानी से जा पाएंगे। सभी को कर्ण का यह सुझाव पसंद आया। यह बात जब दुर्योधन ने महाराज धृतराष्ट्र को बताई तो उन्होंने कहा कि- इस समय पांडव भी द्रौपदी सहित द्वैतवन में निवास कर रहे हैं। यदि वन में तुम्हारा और उनका आमना-सामना हो गया तो वे निश्चित ही तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। ऐसी स्थिति में द्वैतवन जाना उचित नहीं है। तब शकुनि ने धृतराष्ट्र को समझाया कि हम केवल अपनी गायों की गिनती करने जा रहे हैं, हम किसी तरह भी वहां नहीं जाएंगे, जहां पांडव निवास कर रहे हैं। शकुनि की बात सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मान गए और उन्होंने दुर्योधन को दल-बल सहित द्वैतवन में जाने की आज्ञा दे दी।
महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर दुर्योधन बड़ी भारी सेना लेकर द्वैतवन जाने के लिए चला। उसके साथ आठ हजार रथ, तीस हजार हाथी और हजारों पैदल सैनिक भी थे। इस प्रकार जब सभी लोग द्वैतवन पहुंच गए और डेरा लग गया। तब दुर्योधन ने अपनी असंख्य गौओं की गणना की और उन पर अपनी निशानी डलवाई। इस काम से निपट कर दुर्योधन उस सरोवर के निकट पहुंचा, जहां पांडव अपनी कुटिया बनाकर रह रहे थे। दुर्योधन ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि यहां एक क्रीड़ाभवन तैयार करो। दुर्योधन की आज्ञा से सेवक उस सरोवर पर गए, लेकिन गंधर्वों ने उन्हें रोक दिया, क्योंकि वहां पहले से ही गंधर्वों के राजा चित्रसेन जलक्रीड़ा करने अपने सेवकों और अप्सराओं के साथ आया हुआ था। दुर्योधन को जब यह बात पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने गंधर्वों को वहां से भगाने के लिए अपने सैनिक भेजे। दुर्योधन के सैनिक और साथी बलपूर्वक उस सरोवर की सीमा में घुस गए और गंधर्वों को मारने लगे। गंधर्वों के स्वामी चित्रसेन को जब यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ आकर युद्ध करने लगा। गंधर्वों और कौरवों में भीषण युद्ध हुआ। कर्ण आदि महारथियों ने गंधर्वों को भयभीत कर दिया। यहां देखकर चित्रसेन को बहुत क्रोध आया और उसने मायास्त्र चलाकर कौरवों को भ्रम में डाल दिया। इससे कौरवों की सेना में भगदड़ मच गई। चित्रसेन ने दुर्योधन, दु:शासन आदि को बंदी बना लिया।
जो कौरव सैनिक गंधर्वों से जान बचाकर भागे, उन्होंने पांडवों की शरण ली और उन्हें पूरी बात बताई। यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि इस समय ये लोग हमारी शरण में आए हैं, इनकी रक्षा करना हमारा धर्म है। गंधर्व बलपूर्वक दुर्योधन को पकड़ कर ले गए हैं, उनके पास हमारे कुल की स्त्रियां भी हैं। यह हमारे कुल का अपमान है। तुम सब जाओ और दुर्योधन को छुड़ा लाओ। यदि गंधर्वराज न माने तो थोड़ा पराक्रम दिखाकर दुर्योधन को छुड़ा लाना। युधिष्ठिर की बात सुनकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि यदि गंधर्व हमारे समझाने पर भी नहीं माने तो आज हम उन्हें नहीं छोड़ेंगे। ऐसा कहकर भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव दुर्योधन आदि को छुड़ाने के लिए चल पड़े। गंधर्वों के पास पहुंचकर पांडव उनके सामने खड़े हो गए। उन्होंने गंधर्वों को समझाते हुए कहा कि दुर्योधन को छोड़ दो। बहुत समझाने पर भी गंधर्व नहीं माने तो भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव ने उन पर हमला कर दिया। अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़कर हजारों गंधर्वों को मार दिया। गंधर्वों को हारता देख गंधर्वराज चित्रसेन अर्जुन के पास आया और बोला कि वह पांडवों का मित्र है। देवराज इंद्र ने ही उसे दुर्योधन को बंदी बनाने के लिए भेजा था, क्योंकि वह अपना ऐश्वर्य दिखाकर तुम्हें जलाना चाहता था। इसके बाद गंधर्वराज चित्रसेन धर्मराज युधिष्ठिर को पास आए और उन्हें सब बातें बता दीं। युधिष्ठिर के कहने पर गंधर्वों ने दुर्योधन आदि सभी को छोड़ दिया और पुन: स्वर्ग को चले गए। गंधर्वों के बंधन से मुक्त हुए दुर्योधन से धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा कि कभी भी अधिक साहस नहीं करना चाहिए। अब तुम सब भाइयों सहित अपने घर जाओ। इस घटना से मन में किसी प्रकार का खेद मत मानना। धर्मराज के इस प्रकार आज्ञा देने पर दुर्योधन ने उन्हें प्रणाम किया और अपमानित होकर अपने नगर की ओर चला गया। दुर्योधन को उस समय अत्यंत ग्लानि का अनुभव हो रहा था।
महाभारत सीरीज-7 में अब तक आपने पढ़ा कि अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त कर स्वर्ग से पुन: धरती पर आ जाते हैं। पांडव विभिन्न स्थानों पर घुमते हुए काम्यक वन में आकर रहने लगते हैं। श्रीकृष्ण उनकी पत्नी सत्यभामा के साथ पांडवों से मिलने काम्यक वन में आते हैं। यहां द्रौपदी सत्यभामा को बताती है कि किस प्रकार पति के मन को जीता जाता है। पांडव काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, यह बात जब दुर्योधन को पता चलती है तो वह उन्हें जलाने के उद्देश्य से बड़े ही ठाट-बाट के काम्यक वन आता है। यहां गंधर्वों के साथ दुर्योधन का युद्ध होता है। गंधर्व दुर्योधन आदि को बंदी बनाकर लेते हैं। युधिष्ठिर के कहने पर भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव दुर्योधन को छुड़ा लाते हैं। इस घटना से दुर्योधन स्वयं को बहुत अपमानित महसूस करता है और धर्मराज युधिष्ठिर के कहने पर वहां से चला जाता है। महाभारत सीरीज 8 में आगे पढि़ए इस घटना के बाद दुर्योधन आत्महत्या करने की सोचता है। पातालवासी दैत्यों द्वारा समझाने पर वह आत्महत्या करने का विचार त्याग देता है। कर्ण सभी दिशाओं के राजाओं को जीत कर हस्तिनापुर आता है। इस खुशी में दुर्योधन वैष्णव यज्ञ करता है। एक दिन जयद्रथ नाम का राजा द्रौपदी का अपहरण कर लेता है, पांडव उसे हरा कर द्रौपदी को बचाते हैं।
1- पांडवों द्वारा गंधर्वों से मुक्त करवाने पर दुर्योधन स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अपनी सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल देता है। रास्ते में एक सुंदर स्थान देखकर वह विश्राम के लिए रुकता है। वहीं कर्ण भी आ जाता है और दुर्योधन को सकुशल देखकर प्रसन्न होता है। दुर्योधन कर्ण को बताता है कि किस प्रकार पांडवों ने गंधर्वों को युद्ध में हराकर उसके प्राण बचाए हैं। इस घटना से दु:खी होकर दुर्योधन आत्महत्या करने के बारे में सोचता है और कर्ण, दु:शासन आदि से कहता है कि वे हस्तिनापुर लौट जाएं। कर्ण, दु:शासन, शकुनि आदि दुर्योधन को बहुत समझाते हैं लेकिन वह नहीं मानता। दुर्योधन अंतिम निश्चय कर साधुओं के वस्त्र धारण कर लेता है। अन्न-जल त्याग कर उपवास के नियमों का पालन करने लगता है।
दुर्योधन चाहता था आत्महत्या करना, छोड़ दिया था अन्न-जल
2- दुर्योधन अपने प्राण त्यागना चाहता है, यह बात जब देवताओं से पराजित पातालवासी दैत्यों को पता चलती है तो वह सोचते हैं कि अगर दुर्योधन का अंत हो गया तो हमारा पक्ष कमजोर हो जाएगा। यह सोचकर पातालवासी दैत्य एक यज्ञ करते हैं, उस यज्ञकुंड से एक कृत्या (राक्षसी) प्रकट होती है। दैत्य उस कृत्या से दुर्योधन को पाताल लाने के लिए कहते हैं। दैत्यों की आज्ञा से कृत्या कुछ ही देर में दुर्योधन को वहां ले आती है। तब पातालवासी दैत्य दुर्योधन को समझाते हैं कि जो पुरुष आत्महत्या करते हैं, उनकी सभी ओर निंदा होती है और वह अधोगति को प्राप्त होता है। आपकी सहायता के लिए अनेक दानव पृथ्वी पर उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार दुर्योधन को उपदेश देकर पातालवासी दैत्य उसे पुन: धरती पर भेज देते हैं। जब दुर्योधन पुन: धरती पर आता है तो उसे यह पूरी घटना एक सपने जैसी लगती है। दूसरे दिन कर्ण दुर्योधन के सामने प्रतिज्ञा करता है कि अज्ञातवास समाप्त होते ही वह पांडवों का विनाश कर देगा। इस प्रकार कर्ण के कहने पर और दैत्यों की बात याद कर दुर्योधन पांडवों से युद्ध करने का पक्का विचार कर अपनी सेना के साथ हस्तिनापुर लौट आता है।
हस्तिनापुर लौटने के कुछ दिनों बाद कर्ण दुर्योधन से पृथ्वी विजय यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट करता है। दुर्योधन के आज्ञा से शुभ मुहूर्त देखकर कर्ण पृथ्वी के राजाओं को जीतने के लिए जाता है। सभी दिशाओं के राजाओं को जीतकर जब कर्ण पुन: हस्तिनापुर लौटता है तो दुर्योधन बहुत प्रसन्न होता है। कर्ण की जीत से प्रसन्न होकर दुर्योधन भी युधिष्ठिर की तरह राजसूय यज्ञ करना चाहता है, लेकिन ब्राह्मण उसे ऐसा करने से मना देते हैं क्योंकि युधिष्ठिर के जीवित रहते यह यज्ञ नहीं किया जा सकता था। ब्राह्मणों के कहने पर दुर्योधन वैष्णव यज्ञ करता है। इस यज्ञ में अनेक पराक्रमी राजा-महाराजा सम्मिलित होते हैं। दुर्योधन सभी का उचित आदर-सत्कार करता है। दुर्योधन का वैष्णव यज्ञ बिना किसी रुकावट के संपन्न हो जाता है, जिससे वह बहुत प्रसन्न होता है।
एक दिन महर्षि दुर्वासा अपने 10 हजार शिष्यों के साथ हस्तिनापुर आते हैं। दुर्योधन उनकी बहुत सेवा करता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है। दुर्योधन की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा उसे वर मांगने के लिए कहते हैं। दुर्योधन पांडवों का अहित करने के उद्ेश्श्य से महर्षि दुर्वासा से कहता है कि युधिष्ठिर हमारे कुल में सबसे बड़े हैं। वे इस समय अपने भाइयों के साथ वन में निवास कर रहे हैं। आप उन्हें भी अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें। दुर्योधन महर्षि दुर्वासा से यह भी कहता है कि वे अपने शिष्यों सहित उस समय युधिष्ठिर के पास जाएं जिस समय द्रौपदी सब ब्राह्मणों और अपने पतियों को भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करने के बाद विश्राम कर रही हो। महर्षि दुर्वासा ने दुर्योधन की बात मान लेते हैं। दुर्योधन जानता था कि महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी हैं यदि उन्हें समय पर भोजन नहीं मिला तो वे अवश्य ही युधिष्ठिर सहित सभी पांडवों को श्राप दे देंगे। एक दिन दुर्वासा मुनि इस बात का पता लगाकर कि पांडव और द्रौपदी भोजन के बाद विश्राम कर रहे हैं, अपने 10 हजार शिष्यों के साथ वन में युधिष्ठिर के पास जाते हैं। युधिष्ठिर महर्षि दुर्वासा व उनके शिष्यों का आदर- सत्कार कर भोजन के लिए निमंत्रित करते हैं। निमंत्रण स्वीकार करके महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ स्नान करने चले जाते हैं। द्रौपदी को जब पता चलता है तो वह बहुत चिंतित होती है क्योंकि उस समय तक वह सूर्यदेव द्वारा दिया गया अक्षय पात्र धोकर रख चुकी होती है। द्रौपदी जानती थी कि महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी हैं और यदि उन्हें समय पर भोजन नहीं मिला तो वे पांडवों का अनिष्ट कर देंगे। संकट की इस घड़ी में वह भगवान श्रीकृष्ण को याद करती है।
द्रौपदी की करुण पुकार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण वहां आ जाते हैं। श्रीकृष्ण को आया देख पांडव बहुत प्रसन्न होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी के पास जाते हैं और उससे कुछ खाने के लिए मांगते हैं। उनकी बात सुनकर द्रौपदी बहुत लज्जित होती है और बताती है कि भगवान सूर्यनारायण द्वारा दिए अक्षय पात्र से उस समय तक ही अन्न प्राप्त होता है जब तक वह भोजन न कर ले। उसके भोजन करने के बाद उस पात्र से अन्न नहीं मिलता। भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी से वह अक्षय पात्र दिखाने के लिए कहते हैं। द्रौपदी वह पात्र भगवान श्रीकृष्ण को दिखाती है, उस पात्र में अन्न का एक दाना लगा होता है। श्रीकृष्ण ने वह दाना खा लेते हैं और कहते हैं इस अन्न द्वारा संपूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त एवं संतुष्ट हों। इधर दुर्वासा सहित सभी शिष्यों को नदी में स्नान करते-करते लगता है कि उन्होंने भोजन कर लिया है। उन्हें डकारे आने लगती हैं। नदी से बाहर निकलकर दुर्वास मुनि देखते हैं कि उनके सभी शिष्य पूर्ण तृप्त हैं। दुर्वासा मुनि सोचते हैं कि अब अगर हम युधिष्ठिर के आश्रम में जाकर भोजन नहीं करेंगे तो उनका बहुत अपमान होगा। यह सोचकर महर्षि दुर्वासा पांडवों को बिना बताए वहां से चले जाते हैं।
एक दिन पांडव द्रौपदी को आश्रम में अकेली छोड़कर किसी कार्य से वन में जाते हैं। उसी समय पांडवों के आश्रम के समीप से सिंधुदेश का राजा जयद्रथ निकलता है। वह कौरवों की बहन दु:शला की पति था। राजा जयद्रथ जब द्रौपदी को आश्रम में देखता है कि वह उस पर मोहित हो जाता है। द्रौपदी की सुंदरता देखकर उसके मन में बुरे विचार आने लगते हैं। वह अपने साथी कोटिकास्य से द्रौपदी के बारे में पता लगाने के लिए कहता है। कोटिकास्य द्रौपदी के बारे में पूरी बात जानकर जयद्रथ को बता देता है। द्रौपदी को अकेली देखकर जयद्रथ पांडवों के आश्रम में घुस जाता है और द्रौपदी को बलपूर्वक अपने रथ में बैठाकर ले जाने लगता है। यह दृश्य देखकर धौम्य मुनि द्रौपदी को बचाने के लिए रथ के पीछे जाते हैं। जब पांडव लौटकर अपने आश्रम आते हैं तो उन्हें जयद्रथ द्वारा द्रौपदी के अपहरण के बारे में पता चलता है। पांडव द्रौपदी को बचाने के लिए जाते हैं। कुछ ही देर में पांडव जयद्रथ की सेना के समीप पहुंच जाते हैं। पांडवों और जयद्रथ की सेना में घोर युद्ध होता है। पांडव जयद्रथ की पूरी सेना और बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर देते हैं। सेना का विनाश देख जयद्रथ डर जाता है और द्रौपदी को अपने रथ से नीचे उतार कर वन की ओर भाग जाता है। भीम और अर्जुन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को आश्रम भेज देते हैं और स्वयं जयद्रथ को ढुंढने लगते हैं। जब पांडव लौटकर अपने आश्रम आते हैं तो उन्हें जयद्रथ द्वारा द्रौपदी के अपहरण के बारे में पता चलता है। पांडव द्रौपदी को बचाने के लिए जाते हैं। कुछ ही देर में पांडव जयद्रथ की सेना के समीप पहुंच जाते हैं। पांडवों और जयद्रथ की सेना में घोर युद्ध होता है। पांडव जयद्रथ की पूरी सेना और बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर देते हैं। सेना का विनाश देख जयद्रथ डर जाता है और द्रौपदी को अपने रथ से नीचे उतार कर वन की ओर भाग जाता है। भीम और अर्जुन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को आश्रम भेज देते हैं और स्वयं जयद्रथ को ढुंढने लगते हैं। पांडवों से पराजित होने पर जयद्रथ बहुत लज्जित महसूस करता है। अपमानित होने के कारण वह अपने राज्य न जाकर हरिद्वार चला जाता है। वहां जयद्रथ भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या करता है। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसे दर्शन देते हैं और वरदान मांगने के लिए कहते हैं। जयद्रथ भगवान शिव से युद्ध में पांडवों को जीतने का वरदान मांगता है। भगवान शिव जयद्रथ से कहते हैं कि पांडवों से जीतना या उन्हें मारना किसी के भी बस में नहीं है। साथ ही ये वरदान देते हैं कि केवल एक दिन वह अर्जुन को छोड़ शेष चार पांडवों को युद्ध में पीछे हटा सकता है। क्योंकि अर्जुन स्वयं भगवान नर का अवतार है इसलिए उस पर तुम्हारा वश नहीं चलेगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर अंतर्धान हो जाते हैं और जयद्रथ अपने राज्य में लौट आता है।

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