धर्म-कर्म/ DHARM-KARM
vinod upadhyay
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रविवार, 14 फ़रवरी 2016
बुधवार, 12 मार्च 2014
महाभारत सीरीज-6 में अब तक आपने पढ़ा कि अर्जुन के स्वर्ग जाने के बाद युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव और द्रौपदी विभिन्न तीर्थों की यात्रा करते हुए बदरिकाश्रम पहुंच गए और वहीं रहने लगे। एक दिन पांडवों के आश्रम में एक सुंदर कमल का फूल उड़ता हुआ आया। द्रौपदी ने भीमसेन से ऐसे और फूल लाने के लिए कहा। भीमसेन कमल पुष्प की खोज में गंधमादन पर्वत की ओर चल दिए। रास्ते में भीम को पवनपुत्र हनुमान ने दर्शन दिए। उन्होंने भीम को वरदान दिया कि जब कौरवों और पांडवों में युद्ध होगा तब वह अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठ जाएंगे और ऐसी भीषण गर्जना करेंगे कि शत्रुओं के प्राण सूख जाएंगे और तब उन्हें आसानी से मारा जा सकेगा।
कमल पुष्प की खोज में भीमसेन कुबेरजी के राजमहल के पास स्थित सरोवर तक पहुंच गए। जब भीमसेन उस सरोवर से फूल लेने लगे तो उस सरोवर के रक्षक यक्ष और राक्षसों ने भीम पर हमला कर दिया। भीमसेन ने भी उन पर हमला कर उन्हें पराजित कर दिया। पता चलने पर युधिष्ठिर आदि भाई भी वहां पहुंच गए। पांडव आदि कुछ समय तक वहीं रुके और पुन: बदरिकाश्रम लौट आए।
महाभारत सीरीज 7 में पढ़िए पांडव जब काम्यक वन आए तो उनकी भेंट भगवान श्रीकृष्ण से हुई। उनके साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थी। सत्यभामा के पूछने पर द्रौपदी ने अपनी दिनचर्या बताई और यह भी बताया कि वह किस प्रकार अपने पांचों पतियों को प्रसन्न रखती है। द्रौपदी ने सत्यभामा को बताया कि पत्नी को अपने पति के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, जिससे उनका मन सदैव पत्नी के वश में रहे।
जब युधिष्ठिर आदि पांडव बदरिकाश्रम में रह रहे थे, तभी एक दिन वहां एक राक्षस ब्राह्मण के वेष में आकर रहने लगा। उसका नाम जटासुर था। वह राक्षस पांडवों के शस्त्रों और द्रौपदी का हरण करना चाहता था। एक दिन जब भीमसेन आश्रम में नहीं थे, मौका पाकर वह राक्षस अपने मूल स्वरूप में आकर युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और सारे शस्त्रों का हरण कर ले जाने लगा। पता चलने पर भीमसेन उस राक्षस का पकड़ने दौड़े।
थोड़ी दूर पर ही भीमसेन ने उस राक्षस को पकड़ लिया। भीमसेन और जटासुर के बीच भयंकर युद्ध हुआ। पहले तो दोनों में बाहुयुद्ध हुआ। इसके बाद दोनों ने वृक्ष उखाड़ कर एक-दूसरे पर हमला कर दिया। अंत में भीमसेन के हाथों जटासुर मारा गया। इसके बाद सभी पांडव, द्रौपदी के साथ आश्रम लौट आए। इस प्रकार वहां रहते हुए पांडवों के वनवास के पांच वर्ष पूर्ण हो गए।
एक दिन जब भीमसेन एकांत में बैठे थे। तब द्रौपदी ने उनसे कहा कि इस पर्वत पर अनेक राक्षस निवास करते हैं। यदि वे सब यह पर्वत छोड़कर भाग जाएं तो कैसा रहे। भीमसेन द्रौपदी की बात समझ गए और अपने शस्त्र उठाकर गंधमादन पर्वत पर बेखटके आगे बढ़ने लगे। पर्वत की चोटी पर जाकर वे कुबेर के महल को देखने लगे। तभी भीमसेन ने अपने शंख से भयानक ध्वनि की। शंख की ध्वनि सुन यक्ष और राक्षसों ने भीमसेन पर हमला कर दिया। भीमसेन ने अकेले ही उन सभी को पराजित कर दिया।
वहीं कुबेर का मित्र मणिमान नाम का राक्षस रहता था। उसके और भीम के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। भीमसेन ने उसका भी वध कर दिया। युद्ध की आवाजें सुनकर युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव भी भीमसेन के पास पहुंच गए। जब कुबेरजी को पता चला कि भीमसेन ने एक बार फिर उनके क्षेत्र में आकर उनके सेवकों को मारा है तो बहुत क्रोधित हो गए और अपने रथ पर सवार होकर उस ओर चल दिए। वहां पहुंचकर जब कुबेरजी ने युधिष्ठिर को देखा तो उनका क्रोध शांत हो गया। उन्होंने कहा कि ये राक्षस तो अपने काल से ही मरे हैं। भीमसेन तो सिर्फ निमित्त मात्र हैं। कुबेर ने बताया कि आपका भाई अर्जुन अस्त्रविद्या में निपुण हो गया है और वह जल्दी आप लोगों से मिलेगा। पांडवों ने वह रात कुबेरजी के महल में ही बिताई।
सुबह होने पर पांडव पुन: महर्षि आष्र्टिषेण के आश्रम लौट आए और वहीं सुखपूर्वक निवास करने लगे। इधर, अर्जुन देवताओं से अस्त्रविद्या सीख कर और देवराज इंद्र से आज्ञा लेकर प्रसन्नतापूर्वक गंधमादन पर्वत लौट आए। अर्जुन देवराज इंद्र के रथ से पर्वत पर पहुंचे। अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी सहित अन्य ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन ने संक्षेप में महादेव से युद्ध व अपने स्वर्ग प्रवास की बहुत-सी रोचक बातें अपने भाइयों को बताई। अगले दिन जब सभी पांडव उठे, उसी समय वहां देवराज इंद्र आ गए और उन्होंने कहा कि अर्जुन ने उनसे सावधानीपूर्वक सब शस्त्र प्राप्त कर लिए हैं। अब इससे कोई नहीं जीत सकता। उन्होंने पांडवों से काम्यक वन लौट जाने को कहा। ऐसा कहकर देवराज इंद्र पुन: स्वर्ग लौट गए। अर्जुन के स्वर्ग से लौटने पर पांडवों ने थोड़ा और समय गंधमादन पर्वत पर बिताया। अर्जुन वहां रहकर अस्त्र चलाने का अभ्यास किया करते थे। इस तरह चार वर्ष और बीत गए। पहले 6 और बाद में 4 वर्ष। इस प्रकार पांडवों के वनवास के कुल 10 वर्ष सूखपूर्वक बीत गए। इसके बाद पांडवों ने आगे की यात्रा शुरू की। चीन, तुषार, दरद और कुलिंद देशों को पार कर पांडव राजा सुबाहु के राज्य में पहुंचे। यहां पांडवों ने एक वर्ष व्यतीत किया। आगे की यात्रा करते हुए पांडव काम्यक वन पहुंच गए और वहीं रहने लगे।
जब भगवान श्रीकृष्ण को पता चला कि पांडव काम्यक वन में रह रहे हैं तो वे उनसे मिलने आए। भगवान श्रीकृष्ण के साथ उनकी पत्नी सत्यभामा भी थीं। श्रीकृष्ण पांडवों से बड़े प्रेम से मिले। जब पांडवों और श्रीकृष्ण में चर्चा चल रही थी, उस समय सत्यभामा और द्रौपदी भी बातें कर रहीं थीं। बातों ही बातों में सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा कि तुम्हारे पति बहुत ही शूरवीर हैं, तुम इन सभी के साथ कैसा व्यवहार करती हो, जिससे वे तुम पर कभी क्रोधित नहीं होते और सदैव तुम्हारे वश में रहते हैं।
सत्यभामा की बात सुनकर द्रौपदी ने बताया कि वह अहंकार, काम, क्रोध को छोड़कर पांडवों की सेवा करती है। कटु वचन नहीं बोलती, असभ्यता से खड़ी नहीं होती, बुरी बातें नहीं सुनती, बुरी जगहों पर नहीं बैठती। देवता, मनुष्य, गंधर्व, धनी अथवा रूपवान, कैसा भी पुरुष हो, पांडवों के अतिरिक्त और किसी के प्रति उसका मन नहीं झुकता। अपने पतियों के भोजन किए बिना भोजन नहीं करती। उनके स्नान किए बिना स्नान नहीं करती और उनके बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती।
द्रौपदी ने कहा कि वह घर के बर्तनों को मांज-धोकर साफ रखती है, स्वादिष्ट भोजन बनाती है। पतियों को समय पर भोजन कराती है। घर को साफ रखती है। बातचीत में भी किसी का तिरस्कार नहीं करती। कुलटा स्त्रियों के पास नहीं फटकती। दरवाजे पर बार-बार जाकर खड़ी नहीं होती। आलस्य से दूर रहती है। वह अपने पतियों से अच्छा भोजन नहीं करती, उनकी अपेक्षा अच्छे वस्त्राभूषण नहीं पहनती और न कभी अपनी सास से वाद-विवाद करती है। जिस समय महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ में शासन करते थे, उस समय जो कुछ आमदनी, व्यय और बचत होती थी, उस सबका विवरण अकेली ही रखती थी। इस प्रकार पत्नी के लिए शास्त्रों में जो-जो बातें बताई गई हैं, वह उन सबका पालन करती है।
इसके बाद द्रौपदी ने सत्यभामा को पति के मन को अपने वश में करने का सरल मार्ग बताया- पत्नी के लिए पति के समान कोई दूसरा देवता नहीं है। जब तुम्हारे कानों में पतिदेव की आवाज पड़े तो तुम आंगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिए तैयार रहो और जब वे भीतर आ जाएं तो तुरंत ही आसन और पैर धोने के लिए जल देकर उनका सत्कार करो। पति की बातों को गुप्त रखो।
पति के प्रियजनों का खास ध्यान रखो। कुलीन, दोषरहित और सती स्त्रियों के साथ ही मेल-जोल रखो। यदि पति काम के लिए दासी को आज्ञा दें तो तुम स्वयं ही उठकर उनके सब काम करो। जो कोई भी पति से वैर रखते हों, ऐसे लोगों से दूर रहो। सब तरह से अपने पतिदेव की सेवा करो। इससे तुम्हारे यश और सौभाग्य में वृद्धि होगी।
इसके बाद सत्यभामा अपने पति श्रीकृष्ण के साथ पुन: द्वारका लौट गईं।
इसके बाद पांडव द्वैतवन के समीप पवित्र सरोवर पर आकर रहने लगे। यहां रहकर पांडव ब्राह्मणों की सेवा में लगे रहते। पांडव द्वैतवन में आकर रहने लगे हैं यह बात शकुनि को भी पता लग गई। उसने जाकर यह बात कर्ण और दुर्योधन को भी बताई और कहा कि क्यों न हम खूब ठाट-बाट से द्वैतवन चलें, जिसे देखकर पांडवों को जलन होने लगे। शकुनि की बात सुनकर दुर्योधन ने कर्ण से कहा कि कोई ऐसा उपाय सोचो कि महाराज धृतराष्ट्र हमें द्वैतवन जाने की आज्ञा दे दें। दुर्योधन की बात सुनकर कर्ण आदि सभी किसी तरह द्वैतवन जाने की योजना के बारे में विचार करने लगे।
अगले दिन कर्ण ने दुर्योधन को बताया कि इन दिनों आपकी गायें द्वैतवन में ही हैं और उनकी देखभाल करने वाले चरवाहे भी वहीं निवास कर रहे हैं। हम महाराज धृतराष्ट्र को यह बात बताएंगे और अपनी गायों को देखने, गिनती करने और उनकी स्थिति देखने के बहाने द्वैतवन आसानी से जा पाएंगे। सभी को कर्ण का यह सुझाव पसंद आया।
यह बात जब दुर्योधन ने महाराज धृतराष्ट्र को बताई तो उन्होंने कहा कि- इस समय पांडव भी द्रौपदी सहित द्वैतवन में निवास कर रहे हैं। यदि वन में तुम्हारा और उनका आमना-सामना हो गया तो वे निश्चित ही तुम्हें नहीं छोड़ेंगे। ऐसी स्थिति में द्वैतवन जाना उचित नहीं है। तब शकुनि ने धृतराष्ट्र को समझाया कि हम केवल अपनी गायों की गिनती करने जा रहे हैं, हम किसी तरह भी वहां नहीं जाएंगे, जहां पांडव निवास कर रहे हैं। शकुनि की बात सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मान गए और उन्होंने दुर्योधन को दल-बल सहित द्वैतवन में जाने की आज्ञा दे दी।
महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर दुर्योधन बड़ी भारी सेना लेकर द्वैतवन जाने के लिए चला। उसके साथ आठ हजार रथ, तीस हजार हाथी और हजारों पैदल सैनिक भी थे। इस प्रकार जब सभी लोग द्वैतवन पहुंच गए और डेरा लग गया। तब दुर्योधन ने अपनी असंख्य गौओं की गणना की और उन पर अपनी निशानी डलवाई। इस काम से निपट कर दुर्योधन उस सरोवर के निकट पहुंचा, जहां पांडव अपनी कुटिया बनाकर रह रहे थे। दुर्योधन ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि यहां एक क्रीड़ाभवन तैयार करो। दुर्योधन की आज्ञा से सेवक उस सरोवर पर गए, लेकिन गंधर्वों ने उन्हें रोक दिया, क्योंकि वहां पहले से ही गंधर्वों के राजा चित्रसेन जलक्रीड़ा करने अपने सेवकों और अप्सराओं के साथ आया हुआ था।
दुर्योधन को जब यह बात पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने गंधर्वों को वहां से भगाने के लिए अपने सैनिक भेजे। दुर्योधन के सैनिक और साथी बलपूर्वक उस सरोवर की सीमा में घुस गए और गंधर्वों को मारने लगे। गंधर्वों के स्वामी चित्रसेन को जब यह पता चला तो वह भी अपने सैनिकों के साथ आकर युद्ध करने लगा। गंधर्वों और कौरवों में भीषण युद्ध हुआ। कर्ण आदि महारथियों ने गंधर्वों को भयभीत कर दिया। यहां देखकर चित्रसेन को बहुत क्रोध आया और उसने मायास्त्र चलाकर कौरवों को भ्रम में डाल दिया। इससे कौरवों की सेना में भगदड़ मच गई। चित्रसेन ने दुर्योधन, दु:शासन आदि को बंदी बना लिया।
जो कौरव सैनिक गंधर्वों से जान बचाकर भागे, उन्होंने पांडवों की शरण ली और उन्हें पूरी बात बताई। यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि इस समय ये लोग हमारी शरण में आए हैं, इनकी रक्षा करना हमारा धर्म है। गंधर्व बलपूर्वक दुर्योधन को पकड़ कर ले गए हैं, उनके पास हमारे कुल की स्त्रियां भी हैं। यह हमारे कुल का अपमान है।
तुम सब जाओ और दुर्योधन को छुड़ा लाओ। यदि गंधर्वराज न माने तो थोड़ा पराक्रम दिखाकर दुर्योधन को छुड़ा लाना। युधिष्ठिर की बात सुनकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि यदि गंधर्व हमारे समझाने पर भी नहीं माने तो आज हम उन्हें नहीं छोड़ेंगे। ऐसा कहकर भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव दुर्योधन आदि को छुड़ाने के लिए चल पड़े।
गंधर्वों के पास पहुंचकर पांडव उनके सामने खड़े हो गए। उन्होंने गंधर्वों को समझाते हुए कहा कि दुर्योधन को छोड़ दो। बहुत समझाने पर भी गंधर्व नहीं माने तो भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव ने उन पर हमला कर दिया। अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़कर हजारों गंधर्वों को मार दिया। गंधर्वों को हारता देख गंधर्वराज चित्रसेन अर्जुन के पास आया और बोला कि वह पांडवों का मित्र है। देवराज इंद्र ने ही उसे दुर्योधन को बंदी बनाने के लिए भेजा था, क्योंकि वह अपना ऐश्वर्य दिखाकर तुम्हें जलाना चाहता था।
इसके बाद गंधर्वराज चित्रसेन धर्मराज युधिष्ठिर को पास आए और उन्हें सब बातें बता दीं। युधिष्ठिर के कहने पर गंधर्वों ने दुर्योधन आदि सभी को छोड़ दिया और पुन: स्वर्ग को चले गए। गंधर्वों के बंधन से मुक्त हुए दुर्योधन से धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा कि कभी भी अधिक साहस नहीं करना चाहिए। अब तुम सब भाइयों सहित अपने घर जाओ। इस घटना से मन में किसी प्रकार का खेद मत मानना। धर्मराज के इस प्रकार आज्ञा देने पर दुर्योधन ने उन्हें प्रणाम किया और अपमानित होकर अपने नगर की ओर चला गया। दुर्योधन को उस समय अत्यंत ग्लानि का अनुभव हो रहा था।
महाभारत सीरीज-7 में अब तक आपने पढ़ा कि अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त कर स्वर्ग से पुन: धरती पर आ जाते हैं। पांडव विभिन्न स्थानों पर घुमते हुए काम्यक वन में आकर रहने लगते हैं। श्रीकृष्ण उनकी पत्नी सत्यभामा के साथ पांडवों से मिलने काम्यक वन में आते हैं। यहां द्रौपदी सत्यभामा को बताती है कि किस प्रकार पति के मन को जीता जाता है। पांडव काम्यक वन में निवास कर रहे हैं, यह बात जब दुर्योधन को पता चलती है तो वह उन्हें जलाने के उद्देश्य से बड़े ही ठाट-बाट के काम्यक वन आता है।
यहां गंधर्वों के साथ दुर्योधन का युद्ध होता है। गंधर्व दुर्योधन आदि को बंदी बनाकर लेते हैं। युधिष्ठिर के कहने पर भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव दुर्योधन को छुड़ा लाते हैं। इस घटना से दुर्योधन स्वयं को बहुत अपमानित महसूस करता है और धर्मराज युधिष्ठिर के कहने पर वहां से चला जाता है। महाभारत सीरीज 8 में आगे पढि़ए इस घटना के बाद दुर्योधन आत्महत्या करने की सोचता है।
पातालवासी दैत्यों द्वारा समझाने पर वह आत्महत्या करने का विचार त्याग देता है। कर्ण सभी दिशाओं के राजाओं को जीत कर हस्तिनापुर आता है। इस खुशी में दुर्योधन वैष्णव यज्ञ करता है। एक दिन जयद्रथ नाम का राजा द्रौपदी का अपहरण कर लेता है, पांडव उसे हरा कर द्रौपदी को बचाते हैं।
1- पांडवों द्वारा गंधर्वों से मुक्त करवाने पर दुर्योधन स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अपनी सेना के साथ हस्तिनापुर की ओर चल देता है। रास्ते में एक सुंदर स्थान देखकर वह विश्राम के लिए रुकता है। वहीं कर्ण भी आ जाता है और दुर्योधन को सकुशल देखकर प्रसन्न होता है। दुर्योधन कर्ण को बताता है कि किस प्रकार पांडवों ने गंधर्वों को युद्ध में हराकर उसके प्राण बचाए हैं।
इस घटना से दु:खी होकर दुर्योधन आत्महत्या करने के बारे में सोचता है और कर्ण, दु:शासन आदि से कहता है कि वे हस्तिनापुर लौट जाएं। कर्ण, दु:शासन, शकुनि आदि दुर्योधन को बहुत समझाते हैं लेकिन वह नहीं मानता। दुर्योधन अंतिम निश्चय कर साधुओं के वस्त्र धारण कर लेता है। अन्न-जल त्याग कर उपवास के नियमों का पालन करने लगता है।
दुर्योधन चाहता था आत्महत्या करना, छोड़ दिया था अन्न-जल
2- दुर्योधन अपने प्राण त्यागना चाहता है, यह बात जब देवताओं से पराजित पातालवासी दैत्यों को पता चलती है तो वह सोचते हैं कि अगर दुर्योधन का अंत हो गया तो हमारा पक्ष कमजोर हो जाएगा। यह सोचकर पातालवासी दैत्य एक यज्ञ करते हैं, उस यज्ञकुंड से एक कृत्या (राक्षसी) प्रकट होती है। दैत्य उस कृत्या से दुर्योधन को पाताल लाने के लिए कहते हैं।
दैत्यों की आज्ञा से कृत्या कुछ ही देर में दुर्योधन को वहां ले आती है। तब पातालवासी दैत्य दुर्योधन को समझाते हैं कि जो पुरुष आत्महत्या करते हैं, उनकी सभी ओर निंदा होती है और वह अधोगति को प्राप्त होता है। आपकी सहायता के लिए अनेक दानव पृथ्वी पर उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार दुर्योधन को उपदेश देकर पातालवासी दैत्य उसे पुन: धरती पर भेज देते हैं।
जब दुर्योधन पुन: धरती पर आता है तो उसे यह पूरी घटना एक सपने जैसी लगती है। दूसरे दिन कर्ण दुर्योधन के सामने प्रतिज्ञा करता है कि अज्ञातवास समाप्त होते ही वह पांडवों का विनाश कर देगा। इस प्रकार कर्ण के कहने पर और दैत्यों की बात याद कर दुर्योधन पांडवों से युद्ध करने का पक्का विचार कर अपनी सेना के साथ हस्तिनापुर लौट आता है।
हस्तिनापुर लौटने के कुछ दिनों बाद कर्ण दुर्योधन से पृथ्वी विजय यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट करता है। दुर्योधन के आज्ञा से शुभ मुहूर्त देखकर कर्ण पृथ्वी के राजाओं को जीतने के लिए जाता है। सभी दिशाओं के राजाओं को जीतकर जब कर्ण पुन: हस्तिनापुर लौटता है तो दुर्योधन बहुत प्रसन्न होता है। कर्ण की जीत से प्रसन्न होकर दुर्योधन भी युधिष्ठिर की तरह राजसूय यज्ञ करना चाहता है, लेकिन ब्राह्मण उसे ऐसा करने से मना देते हैं क्योंकि युधिष्ठिर के जीवित रहते यह यज्ञ नहीं किया जा सकता था।
ब्राह्मणों के कहने पर दुर्योधन वैष्णव यज्ञ करता है। इस यज्ञ में अनेक पराक्रमी राजा-महाराजा सम्मिलित होते हैं। दुर्योधन सभी का उचित आदर-सत्कार करता है। दुर्योधन का वैष्णव यज्ञ बिना किसी रुकावट के संपन्न हो जाता है, जिससे वह बहुत प्रसन्न होता है।
एक दिन महर्षि दुर्वासा अपने 10 हजार शिष्यों के साथ हस्तिनापुर आते हैं। दुर्योधन उनकी बहुत सेवा करता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है। दुर्योधन की सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि दुर्वासा उसे वर मांगने के लिए कहते हैं। दुर्योधन पांडवों का अहित करने के उद्ेश्श्य से महर्षि दुर्वासा से कहता है कि युधिष्ठिर हमारे कुल में सबसे बड़े हैं। वे इस समय अपने भाइयों के साथ वन में निवास कर रहे हैं। आप उन्हें भी अपनी सेवा का अवसर प्रदान करें। दुर्योधन महर्षि दुर्वासा से यह भी कहता है कि वे अपने शिष्यों सहित उस समय युधिष्ठिर के पास जाएं जिस समय द्रौपदी सब ब्राह्मणों और अपने पतियों को भोजन कराकर स्वयं भी भोजन करने के बाद विश्राम कर रही हो। महर्षि दुर्वासा ने दुर्योधन की बात मान लेते हैं। दुर्योधन जानता था कि महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी हैं यदि उन्हें समय पर भोजन नहीं मिला तो वे अवश्य ही युधिष्ठिर सहित सभी पांडवों को श्राप दे देंगे। एक दिन दुर्वासा मुनि इस बात का पता लगाकर कि पांडव और द्रौपदी भोजन के बाद विश्राम कर रहे हैं, अपने 10 हजार शिष्यों के साथ वन में युधिष्ठिर के पास जाते हैं। युधिष्ठिर महर्षि दुर्वासा व उनके शिष्यों का आदर- सत्कार कर भोजन के लिए निमंत्रित करते हैं। निमंत्रण स्वीकार करके महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों के साथ स्नान करने चले जाते हैं।
द्रौपदी को जब पता चलता है तो वह बहुत चिंतित होती है क्योंकि उस समय तक वह सूर्यदेव द्वारा दिया गया अक्षय पात्र धोकर रख चुकी होती है। द्रौपदी जानती थी कि महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी हैं और यदि उन्हें समय पर भोजन नहीं मिला तो वे पांडवों का अनिष्ट कर देंगे। संकट की इस घड़ी में वह भगवान श्रीकृष्ण को याद करती है।
द्रौपदी की करुण पुकार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण वहां आ जाते हैं। श्रीकृष्ण को आया देख पांडव बहुत प्रसन्न होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी के पास जाते हैं और उससे कुछ खाने के लिए मांगते हैं। उनकी बात सुनकर द्रौपदी बहुत लज्जित होती है और बताती है कि भगवान सूर्यनारायण द्वारा दिए अक्षय पात्र से उस समय तक ही अन्न प्राप्त होता है जब तक वह भोजन न कर ले। उसके भोजन करने के बाद उस पात्र से अन्न नहीं मिलता।
भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी से वह अक्षय पात्र दिखाने के लिए कहते हैं। द्रौपदी वह पात्र भगवान श्रीकृष्ण को दिखाती है, उस पात्र में अन्न का एक दाना लगा होता है। श्रीकृष्ण ने वह दाना खा लेते हैं और कहते हैं इस अन्न द्वारा संपूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त एवं संतुष्ट हों।
इधर दुर्वासा सहित सभी शिष्यों को नदी में स्नान करते-करते लगता है कि उन्होंने भोजन कर लिया है। उन्हें डकारे आने लगती हैं। नदी से बाहर निकलकर दुर्वास मुनि देखते हैं कि उनके सभी शिष्य पूर्ण तृप्त हैं। दुर्वासा मुनि सोचते हैं कि अब अगर हम युधिष्ठिर के आश्रम में जाकर भोजन नहीं करेंगे तो उनका बहुत अपमान होगा। यह सोचकर महर्षि दुर्वासा पांडवों को बिना बताए वहां से चले जाते हैं।
एक दिन पांडव द्रौपदी को आश्रम में अकेली छोड़कर किसी कार्य से वन में जाते हैं। उसी समय पांडवों के आश्रम के समीप से सिंधुदेश का राजा जयद्रथ निकलता है। वह कौरवों की बहन दु:शला की पति था। राजा जयद्रथ जब द्रौपदी को आश्रम में देखता है कि वह उस पर मोहित हो जाता है। द्रौपदी की सुंदरता देखकर उसके मन में बुरे विचार आने लगते हैं। वह अपने साथी कोटिकास्य से द्रौपदी के बारे में पता लगाने के लिए कहता है। कोटिकास्य द्रौपदी के बारे में पूरी बात जानकर जयद्रथ को बता देता है। द्रौपदी को अकेली देखकर जयद्रथ पांडवों के आश्रम में घुस जाता है और द्रौपदी को बलपूर्वक अपने रथ में बैठाकर ले जाने लगता है। यह दृश्य देखकर धौम्य मुनि द्रौपदी को बचाने के लिए रथ के पीछे जाते हैं।
जब पांडव लौटकर अपने आश्रम आते हैं तो उन्हें जयद्रथ द्वारा द्रौपदी के अपहरण के बारे में पता चलता है। पांडव द्रौपदी को बचाने के लिए जाते हैं। कुछ ही देर में पांडव जयद्रथ की सेना के समीप पहुंच जाते हैं। पांडवों और जयद्रथ की सेना में घोर युद्ध होता है। पांडव जयद्रथ की पूरी सेना और बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर देते हैं। सेना का विनाश देख जयद्रथ डर जाता है और द्रौपदी को अपने रथ से नीचे उतार कर वन की ओर भाग जाता है। भीम और अर्जुन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को आश्रम भेज देते हैं और स्वयं जयद्रथ को ढुंढने लगते हैं।
जब पांडव लौटकर अपने आश्रम आते हैं तो उन्हें जयद्रथ द्वारा द्रौपदी के अपहरण के बारे में पता चलता है। पांडव द्रौपदी को बचाने के लिए जाते हैं। कुछ ही देर में पांडव जयद्रथ की सेना के समीप पहुंच जाते हैं। पांडवों और जयद्रथ की सेना में घोर युद्ध होता है। पांडव जयद्रथ की पूरी सेना और बड़े-बड़े महारथियों का संहार कर देते हैं। सेना का विनाश देख जयद्रथ डर जाता है और द्रौपदी को अपने रथ से नीचे उतार कर वन की ओर भाग जाता है। भीम और अर्जुन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को आश्रम भेज देते हैं और स्वयं जयद्रथ को ढुंढने लगते हैं।
पांडवों से पराजित होने पर जयद्रथ बहुत लज्जित महसूस करता है। अपमानित होने के कारण वह अपने राज्य न जाकर हरिद्वार चला जाता है। वहां जयद्रथ भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या करता है। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसे दर्शन देते हैं और वरदान मांगने के लिए कहते हैं। जयद्रथ भगवान शिव से युद्ध में पांडवों को जीतने का वरदान मांगता है। भगवान शिव जयद्रथ से कहते हैं कि पांडवों से जीतना या उन्हें मारना किसी के भी बस में नहीं है। साथ ही ये वरदान देते हैं कि केवल एक दिन वह अर्जुन को छोड़ शेष चार पांडवों को युद्ध में पीछे हटा सकता है। क्योंकि अर्जुन स्वयं भगवान नर का अवतार है इसलिए उस पर तुम्हारा वश नहीं चलेगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर अंतर्धान हो जाते हैं और जयद्रथ अपने राज्य में लौट आता है।
महाभारत सीरीज़-8 में अब तक आपने पढ़ा कि गंधर्वों ने जब दुर्योधन को बंदी बना लिया और पांडवों ने उसे बचाया तो दुर्योधन स्वयं को अपमानित महसूस करने लगा। अपने अपमान से दु:खी होकर दुर्योधन ने आत्महत्या करने की सोची। यह बात जब पातालवासी राक्षसों को पता चली तो उन्होंने गुप्त रूप से दुर्योधन को समझाया और आत्महत्या न करने के लिए कहा। हस्तिनापुर लौटने पर कर्ण ने दुर्योधन की सहमति से दिग्विजय यात्रा की और पृथ्वी के अनेक राजाओं को हरा दिया। कर्ण की विजय से प्रसन्न होकर दुर्योधन ने बहुत बड़ा यज्ञ किया।
इधर एक दिन जब पांडव द्रौपदी को आश्रम में अकेला छोड़कर वन में गए हुए थे। तभी वहां सिंधु देश का राजा जयद्रथ आया। वह कौरवों की बहन दु:शला का पति था। उसने आश्रम में द्रौपदी को अकेला पाकर उसका हरण कर लिया। जब पांडवों को यह पता लगा तो उन्होंने जयद्रथ को घेरकर बंदी बना लिया और उसका सिर मूंडकर पांच चोटियां बना दी। जयद्रथ ने पांडवों का नाश करने के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान दिया कि केवल एक दिन के लिए वह अर्जुन को छोड़ शेष चार पांडवों को युद्ध में पीछे हटा सकता है।
सूर्यदेव ने सपने में कर्ण को बताई गुप्त बात
- जब पांडवों के वनवास के 12 वर्ष बीत गए और 13वां वर्ष शुरु हुआ तो देवराज इंद्र ने सोचा कि युद्ध में कर्ण ही अर्जुन की बराबरी कर सकता है। कर्ण के पास सूर्यदेव के कवच-कुंडल हैं, जिसके रहते उसका वध असंभव है। तब इंद्र ने कर्ण से कवच-कुंडल दान में मांगने का विचार किया। यह बात सूर्यदेव को पता चल गई। पुत्रस्नेह के कारण वे एक ब्राह्मण के रूप में कर्ण के सपने में आए और उसे समझाया कि पांडवों के हितैषी देवराज इंद्र तुमसे कवच-कुंडल दान में मांगने आएंगे। यदि तुम उन्हें ये कवच-कुंडल दान में दे दोगे तो तुम्हारी आयु कम हो जाएगी। अत: तुम इंद्र को ये कवच-कुंडल मत देना।
कर्ण ने कहा कि यदि कोई भिक्षा में मेरे प्राण भी मांगे तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा। देवराज इंद्र ने यदि मुझसे कवच-कुंडल मांगे, तो मैं अवश्य उन्हें ये दे दूंगा, क्योंकि प्राणों की रक्षा से अधिक जरूरी है यश की रक्षा करना। कर्ण की बात सुनकर सूर्यदेव बोले कि अगर ऐसा ही है तो देवराज इंद्र को कवच-कुंडल देने से पहले तुम उनसे शत्रुओं का नाश करने वाली अमोघ शक्ति मांग लेना। कर्ण ने स्वप्न में ही सूर्यदेव की बात मान ली।
इंद्र ने कर्ण से ऐसे प्राप्त किए कवच-कुंडल
- एक दिन देवराज इंद्र ब्राह्मण का रूप धारण कर कर्ण के पास आए और भिक्षा मांगने लगे। कर्ण ने ब्राह्मण रूपी इंद्र से इच्छानुसार भिक्षा मांगने के लिए कहा। कर्ण की बात सुनकर देवराज इंद्र ने उससे कवच-कुंडल मांग लिए। ब्राह्मण की बात सुनकर कर्ण ने कहा कि ये कुंडल अमृतमय है। इनके रहते मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता। इसलिए आप इनके अतिरिक्त मुझसे और कुछ मांग लीजिए। कर्ण के ऐसा कहने पर भी ब्राह्मण ने कुछ और नहीं मांगा।
तब कर्ण ने ब्राह्मण से कहा कि आप स्वयं देवराज इंद्र हैं, ये बात मैं जानता हूं। आप स्वयं मुझसे याचना कर रहे हैं। इसलिए मैं आपको अपने कवच-कुंडल अवश्य दूंगा, लेकिन इसके बदले आप को भी मुझे वह अमोघ शक्ति देनी होगी, जो महाभयंकर और महाविनाशकारी है। देवराज इंद्र ने कर्ण को वो अमोघ शक्ति दे दी और कहा कि इस शक्ति का प्रयोग तुम सिर्फ एक ही बार कर सकोगे। कर्ण ने देवराज इंद्र की बात मानकर वह अमोघ शक्ति ले ली और कवच-कुंडल इंद्र को दे दिए।
नकुल से क्या कहा आकाशवाणी ने?
- इधर पांडव काम्यकवन को छोड़कर द्वैतवन में आकर रहने लगे। इस वन में अनेक ब्राह्मण निवास करते थे। वे प्रतिदिन अग्निहोत्र कर अपने धर्म का पालन करते थे। एक दिन एक ब्राह्मण के अरणीसहित मंथनकाष्ठ (यज्ञ में अग्नि उत्पन्न करने वाला लकड़ियों से बना एक यंत्र) एक हिरन ले भागा। ब्राह्मण ने जाकर पांडवों को अपनी समस्या बताई और कहा कि आप मुझे वह मंथनकाष्ठ ला दीजिए ताकि मैं समय पर अग्निहोत्र कर सकूं। ब्राह्मण की बात सुनकर युधिष्ठिर सहित सभी पांडव उस हिरन की खोज में निकल पड़े। बहुत प्रयास करने के बाद भी वह हिरन पांडवों के हाथ नहीं आया।
घुमते-घुमते पांडव बहुत थक गए और एक पेड़ के नीचे बैठ गए। सभी को प्यास भी लग रही थी। युधिष्ठिर ने नकुल को सभी के लिए पानी लाने के लिए कहा। नकुल पानी की खोज करते-करते एक जलाशय के पास पहुंचे। ज्यों ही नकुल पानी पीने के लिए झुके, तभी आकाशवाणी हुई। आकाशवाणी ने नकुल से कहा कि इस जलाशय का जल पीने से पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर देने होंगे, लेकिन नकुल ने आकाशवाणी की बात न सुनते हुए जलाशय का पानी पी लिया। जलाशय का पानी पीते ही नकुल प्राणहीन होकर भूमि पर गिर पड़े।
आखिर क्यों पानी नहीं ला पाए सहदेव, अर्जुन और भीम?
- जब बहुत देर तक नकुल पानी लेकर नहीं लौटे तो युधिष्ठिर ने सहदेव से कहा कि नकुल को पानी लेने गए काफी समय हो गया है। अत: तुम जाओ और पानी लाने में नकुल का सहयोग करो। सहदेव भी पानी की खोज में उस दिशा में चल दिए, जिधर नकुल गए थे और उस जलाशय के पास पहुंच गए। अपने भाई को मृत अवस्था में देखकर सहदेव को बहुत शोक हुआ, लेकिन इस समय वे प्यास से पीड़ित थे। जैसे ही सहदेव पानी पीने के लिए जलाशय की ओर झुके, उस समय वही आकाशवाणी हुई। सहदेव ने भी आकाशवाणी की परवाह न करते हुए जलाशय का पानी पी लिया। पानी पीते ही वे भी प्राणहीन होकर धरती पर गिर पड़े।
सहेदव के भी न लौटने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन को नकुल व सहदेव की खोज करने व पानी लेकर आने के लिए कहा। अर्जुन भी पानी की खोज करते हुए उसी जलाशय के पास पहुंचे। उनके साथ भी वही हुआ। जलाशय का पानी पीते ही वे भी मृत होकर धरती पर गिर पड़े। अंत में युधिष्ठिर ने भीम को भेजा। भीम ने जलाशय के पास जाकर अपने भाइयों के शव देखे तो उन्होंने सोचा कि ये काम अवश्य ही राक्षसों का है। राक्षसों से युद्ध करने से पहले मैं यह जल पी कर तृप्त हो जाता हूं। जैसे ही भीम जल पीने के लिए आगे बढ़े, उन्हें भी वही आकाशवाणी सुनाई दी। भीम ने भी आकाशवाणी की बात न मानते हुए उस जलाशय का जल पी लिया। जल पीते ही वे भी मृत होकर उसी स्थान पर गिर पड़े।
क्या-क्या प्रश्न पूछे यक्ष ने युधिष्ठिर से
- जब नकुल, सहदेव, अर्जुन व भीम में से कोई भी वापस न लौटा तो युधिष्ठिर को बड़ी चिंता हुई। वे भी अपने भाइयों की खोज करते हुए उस जलाशय पर पहुंच गए। अपने शूरवीर भाइयों को मृत अवस्था में देखकर युधिष्ठिर को बहुत दु:ख हुआ। युधिष्ठिर भी जलाशय का पानी पीने के लिए आगे बढ़े। तभी वही आकाशवाणी युधिष्ठिर को भी सुनाई दी। युधिष्ठिर के निवेदन करने पर आकाशवाणी करने वाला यक्ष प्रकट हो गया।
उसने युधिष्ठिर से कहा कि तुमने यदि मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर सही दिए तो तुम इस सरोवर का पानी पी सकते हो। युधिष्ठिर ने कहा आप मुझसे प्रश्न कीजिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उनके उत्तर दूंगा।
यक्ष- सूर्य को कौन उदित करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे अस्त कौन करता है और वह किसमें प्रतिष्ठित है?
युधिष्ठिर- ब्रह्म सूर्य को उदित करता है। देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।
यक्ष- पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊंचा क्या है? वायु से भी तेज चलने वाला क्या है और तिनकों से भी अधिक संख्या में क्या है?
युधिष्ठिर- माता भूमि से भी भारी (बढ़कर) है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है और चिंता तिनकों से भी बढ़कर है।
यक्ष- सो जाने पर पलक कौन नहीं मूंदता? उत्पन्न होने पर भी चेष्ठा कौन नहीं करता? ह्रदय किसमें नहीं है और वेग से कौन बढ़ता है?
युधिष्ठर- मछली सोने पर भी पलक नहीं मूंदती। अंडा उत्पन्न होने पर भी चेष्ठा नहीं करता। पत्थर में ह्रदय नहीं होता और नदी वेग से बढ़ती है।
यक्ष- विदेश में जाने वाला मित्र कौन है? घर में रहने वाले का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है और मृत्यु के समीप पहुंचे हुए पुरुष का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर- साथ के यात्री विदेश में जाने वाले के मित्र हैं। स्त्री घर में रहने वाले की मित्र है। वैद्य रोगी का मित्र है और दान मरने वाले पुरुष का मित्र है।
यक्ष- समस्त प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है और यह सारा जगत क्या है?
युधिष्ठिर- अग्नि समस्त प्राणियों का अतिथि है। गाय का दूध अमृत है। अविनाशी नित्यधर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत है।
इस प्रकार यक्ष ने युधिष्ठिर से बहुत से प्रश्न पूछे। युधिष्ठिर ने उन सभी प्रश्नों के उत्तर बिल्कुल सही दिए।
कैसे पुनर्जीवित हो गए चारों पांडव
- युधिष्ठिर द्वारा दिए गए उत्तरों को सुनकर यक्ष बहुत प्रसन्न हुआ और उसने युधिष्ठिर से कहा कि यहां तुम्हारे चार भाई मृत अवस्था में पड़े हैं। इनमें से जिसे तुम कहोगे, उस एक भाई को मैं जीवित कर दूंगा। यक्ष की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष से कहा कि आप इन सभी में से नकुल को जीवित कर दीजिए। तब यक्ष बोला कि भीमसेन में 10 हजार हाथियों का बल है और अर्जुन को युद्ध में कोई जीत नहीं सकता। फिर भी तुम इन दोनों को छोड़कर नकुल को क्यों जीवित करना चाहते हो? तब युधिष्ठिर ने यक्ष से कहा कि मेरे पिता स्वर्गीय पांडु की दो पत्नियां थीं। दोनों की ही संतान जीवित रहे, ऐसी मेरी इच्छा है। इसलिए मैं माता माद्री के पुत्र नकुल को जीवित करना चाहता हूं। युधिष्ठिर की बात सुनकर यक्षदेव बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने नकुल सहित, भीमसेन, अर्जुन और सहदेव को भी जीवित कर दिया।
यक्ष के रूप में किसने ली थी पांडवों की परीक्षा
- सभी भाइयों के जीवित हो जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष से उसका वास्तविक परिचय पूछा। युधिष्ठिर की बात सुनकर यक्ष ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर कहा कि मैं तुम्हारा पिता धर्मराज हूं। तुम्हें देखने के लिए ही यहां आया हूं। तुम्हें धर्म का संपूर्ण ज्ञान है, यह देखकर मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। अत: तुम मुझसे कोई भी वर मांग लो। धर्मराज के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने कहा कि जिस ब्राह्मण के अरणीसहित मंथनकाष्ट को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र का लोप न हो। धर्मराज ने युधिष्ठिर को वह वर दे दिया।
इसके बाद धर्मराज ने दूसरा वर मांगने के लिए कहा। युधिष्ठिर ने कहा कि हम 12 वर्ष तक वन में रहे। अब तेरहवां वर्ष आ गया है। अत: आप ऐसा वर दीजिए कि हमें कोई पहचान न सके। धर्मराज ने युधिष्ठिर को यह वर भी दे दिया। ये वरदान देकर धर्मराज अपने लोक लौट गए। पांडव भी आश्रम लौट आए और उन्होंने उस ब्राह्मण को उसकी अरणी दे दी।
अज्ञातवास काटने के लिए कहां गए पांडव
- एक दिन पांडव अपने आश्रम में तपस्वियों के साथ बैठे थे। उस समय पांडवों ने तपस्वियों से कहा कि हम 12 वर्ष तक इन वनों में रहे हैं। अब हमारे अज्ञातवास का तेरहवां वर्ष शेष है। इसमें हम छिपकर रहेंगे। इसके लिए हमें किसी दूसरे राष्ट्र में जाना होगा। अत: आप हमें प्रसन्नता से किसी अन्य स्थान पर जाने की आज्ञा प्रदान करें। पांडवों के ऐसा कहने पर तपस्वियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और जाने की आज्ञा भी दे दी। तपस्वियों की आज्ञा लेकर पांडव वहां से चल दिए। थोड़ी दूर आकर पांडव अज्ञातवास के बारे में सलाह करने लगे।
युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि तुम अपनी रुचि के अनुसार कोई अच्छा सा स्थान बताओ, जहां हम सब चलकर एक वर्ष तक रह सकें और शत्रुओं को इसकी खबर भी न हो। युधिष्ठिर के कहने पर अर्जुन ने ऐसे अनेक राष्ट्रों के बारे में बताया, जहां आसानी से अज्ञातवास काटा जा सकता था। तब युधिष्ठिर ने कहा कि इन देशों में से मत्स्यदेश का राजा विराट बहुत बलवान है। वह उदार, धर्मात्मा और वृद्ध भी है। इसलिए मत्स्यदेश में रहना ही इस समय सबसे अनुकूल है। सर्वसम्मति से विचार करने के बाद पांचों पांडव द्रौपदी के साथ विराट नगर की ओर चल पड़े।
विराट नगर पहुंचने से पहले पांडवों ने क्या योजना बनाई
- विराट नगर पहुंचने से पहले पांडवों ने इस बात पर विचार किया कि वहां रहकर कौन, क्या कार्य करेगा।
धर्मराज युधिष्ठिर बोले- मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूं और वह खेल मुझे पसंद भी है। इसलिए मैं कंक नामक ब्राह्मण बनकर राजा के पास जाऊंगा और उनकी राजसभा का एक सभासद् बनकर रहूंगा।
भीमसेन ने कहा- मैं रसोई बनाने में चतुर हूं। अत: मैं बल्लव नामक रसोइया बनकर राजा की रसोई में काम करुंगा।
अर्जुन ने कहा- मैं हाथों में शंख तथा हाथी दांत की चूड़ियां पहनकर सिर पर चोटी गूंथ लूंगा और स्वयं को नपुंसक घोषित कर बृहन्नला नाम बताऊंगा। मेरा काम होगा, राजा विराट की अंत:पुर की स्त्रियों को संगीत और नृत्यकला की शिक्षा देना। इस तरह मैं नर्तकी के रूप में स्वयं को छिपाए रखूंगा।
नकुल ने कहा- मुझे अश्वविद्या की विशेष जानकारी है। घोड़ों को चाल सिखलाना, उनका पालन करना और चिकित्सा करना भी मुझे आता है। अत: मैं राजा के यहां ग्रंथिक नामक अश्वपाल बनकर रहूंगा
सहदेव ने कहा- मैं राजा विराट की गायों की देखभाल करुंगा। गायों के जो लक्षण या शुभ संकेत होते हैं, उनका मुझे अच्छा ज्ञान है। मेरा नाम होगा तंतिपाल। इस रूप में मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्य से राजा को प्रसन्न कर लूंगा।
द्रौपदी ने कहा- जो स्त्रियां दूसरों के घर सेवा के कार्य करती है, उन्हें सैरन्ध्री कहते हैं। अत: मैं सैरन्ध्री कहकर अपना परिचय दूंगी। बालों के श्रंगार का कार्य मैं अच्छी तरह से जानती हूं। इस रूप में मुझे कोई पहचान नहीं पाएगा।
पांडवों ने अपने शस्त्र कहां छिपाए
- विराट नगर जाने के लिए पांडव यमुना के निकट पहुंचकर उसके दक्षिण किनारे से चलने लगे। पर्वत, गुफा, जंगलों से होते हुए पांडव मत्स्यदेश जा पहुंचे। आगे बढ़ते हुए पांडव विराट नगर की राजधानी तक पहुंच गए। नगर में प्रवेश से पहले युधिष्ठिर ने अर्जुन से अस्त्र-शस्त्र सुरक्षित स्थान पर रखने के लिए कहा। तब अर्जुन को श्मशान भूमि के निकट एक टीले पर शमी का घना पेड़ दिखाई दिया।
अर्जुन को वह पेड़ शस्त्र छिपाने के लिए उचित लगा। अर्जुन ने सभी के शस्त्र लेकर उसकी एक पोटली बनाई और नकुल ने उसे ले जाकर शमी वृक्ष पर ऐसे स्थान पर रख दिया, जहां उस पर वर्षा का पानी न गिरे। यह सब करने के बाद पांचों भाइयों ने अपना गुप्त नाम भी रखे, जो क्रमश: इस प्रकार है- जय, जयंत, विजय, जयत्सेन और जयद्वल। इसके बाद पांडवों ने द्रौपदी सहित विराट नगर में प्रवेश किया।
क्यों हुई भीम, अर्जुन, नकुल व सहेदव की मृत्यु?
महाभारत सीरीज़-9 में आगे पढ़िए देवराज इंद्र ने किस प्रकार कर्ण से कवच-कुंडल प्राप्त किए। एक प्रसंग के अनुसार जब पांचों पांडव किसी कार्य से वन में जाते हैं, तो उन्हें बहुत प्यास लगती है। युधिष्ठिर के कहने पर नकुल पानी लेने जाते हैं, लेकिन जलाशय का पानी लेने से पहले यक्ष रूपी धर्मराज उनसे कुछ प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहते हैं। नकुल उनकी बात को अनसुना कर जलाशय का पानी पी लेते हैं। पानी पीते ही तत्काल नकुल की मृत्यु हो जाती है। सहदेव, अर्जुन और भीम के साथ भी यही होता है। अंत में युधिष्ठिर उस जलाशय पर पहुंचते हैं और यक्ष रूपी धर्मराज के सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं। प्रसन्न होकर धर्मराज भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव को पुनर्जीवित कर देते हैं।
महाभारत सीरीज़-9 में अब तक आपने पढ़ा कि देवराज इंद्र ने ब्राह्मण के रूप में कर्ण से कवच-कुंडल प्राप्त कर लिए। धर्मराज ने पांडवों की परीक्षा ली। इसमें भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव की मृत्यु हो गई। युधिष्ठिर ने धर्मराज के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने चारों पांडवों को पुनजीर्वित कर दिया। पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में रूप बदलकर रहने का निश्चय किया। विराट नगर में प्रवेश से पहले पांडवों ने अपने शस्त्र एक शमी वृक्ष के ऊपर छिपा दिए और नगर में प्रवेश किया।
महाभारत सीरीज़-10 में आगे पढ़िए विराट नगर में पांडव किस रूप में रहे व किसने क्या कार्य किया? महाभारत के विराट पर्व के अनुसार द्रौपदी सैरंध्री के रूप में विराट नगर की रानी सुदेष्ण की सेवा करती थी। एक दिन विराट नगर के सेनापति कीचक ने द्रौपदी को देखा और उस पर मोहित हो गया। उसने द्रौपदी के साथ दुराचार करने का प्रयास भी किया, लेकिन भाग्यवश द्रौपदी बच गई। तब द्रौपदी ने भीम से कीचक का वध करने के लिए कहा।
भीम ने योजना बनाकर कीचक का वध कर दिया। जब कीचक के भाइयों को इस बात का पता चला तो उन्होंने द्रौपदी को इसका जिम्मेदार बताया और कीचक के शव के साथ उसे भी जलाने के लिए श्मशान भूमि तक ले गए। वहां भीम ने उन सभी का वध कर दिया और द्रौपदी को उनके बंधन से मुक्त कर दिया।
युधिष्ठिर, भीम और द्रौपदी ने किया विराट नगर में
1- विराटनगर में प्रवेश करने के बाद सबसे पहले युधिष्ठिर वेष बदलकर राजा विराट के दरबार में गए। परिचय पूछने पर युधिष्ठिर ने राजा विराट को बताया कि मैं एक ब्राह्मण हूं, मेरा नाम कंक है। मेरा सबकुछ लुट चुका है। इसलिए मैं जीविका के लिए आपके पास आया हूं। जुआ खेलने वालों में पासा फेंकने की कला का मुझे विशेष ज्ञान है। अत: आप मुझे अपने दरबार में उचित स्थान प्रदान करें। युधिष्ठिर की बात सुनकर राजा विराट ने उन्हें अपना मित्र बना लिया और राजकोष व सेना आदि की जिम्मेदारी भी सौंप दी।
इसके बाद भीम राजा विराट की सभा में आए। उनके हाथ में चमचा, करछी, और साग काटने के लिए एक लोहे का छुरा था। उन्होंने अपना परिचय एक रसोइए के रूप में दिया और अपना नाम बल्लव बताया। राजा ने भीम को भोजनशाला का प्रधान अधिकारी बना दिया। इस प्रकार युधिष्ठिर और भीम को कोई पहचान न सका।
इसके बाद द्रौपदी सैरंध्री का वेष बनाकर दुखिया की तरह विराट नगर में भटकने लगी। उसी समय राजा विराट की पत्नी सुदेष्ण की नजर महल की खिड़की से उस पर पड़ी। उन्होंने द्रौपदी को बुलवाया और उसका परिचय पूछा। द्रौपदी ने स्वयं को काम करने वाली दासी बताया और कहा कि मैं बालों को सुंदर बनाना और गूंथना जानती हूं। चंदन या अनुराग भी बहुत अच्छा तैयार करती हूं। भोजन तथा वस्त्र के सिवा और कुछ पारिश्रमिक नहीं लेती। द्रौपदी की बात सुनकर रानी सुदेष्ण ने उसे अपने पास रख लिया।
सहदेव, अर्जुन और नकुल किस वेष में गए राजा विराट के सामने
2- कुछ समय बाद सहदेव भी ग्वाले का वेष बनाकर राजा विराट के पास गए। राजा ने सहदेव से उनका परिचय पूछा। सहदेव ने स्वयं को तंतिपाल नाम का ग्वाला बताया और कहा कि चालीस कोस के अंदर जितनी गाएं रहती हैं, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमान काल की संख्या मुझे सदा मालूम होती है। जिन उपायों से गायों की संख्या बढ़ती रहे तथा उन्हेें कोई रोग आदि न हो, वे सब भी मुझे अच्छे से आते हैं। सहदेव की योग्यता देखकर राजा विराट ने उन्हें पशुओं की देखभाल करने वालों का प्रमुख बना दिया।
कुछ समय बाद अर्जुन बृहन्नला (नपुंसक) के रूप में राजा विराट की सभा में गए और कहा कि मैं नृत्य और संगीत की कला में निपुण हूं। अत: आप मुझे राजकुमारी उत्तरा को इस कला की शिक्षा देने के लिए रख लें। राजा विराट ने अर्जुन को भी अपनी सेवा में रख लिया।
इसके बाद नकुल अश्वपाल का वेष धारण कर राजा विराट की सभा में आए। उन्होंने अपना परिचय ग्रंथिक के रूप में दिया। राजा विराट ने अश्वों से संबंधित ज्ञान देखकर उन्हें घोड़ों और वाहनों की देखभाल करने वालों का प्रमुख बना दिया। इस प्रकार पांचों पांडव व द्रौपदी अज्ञातवास के दौरान विराट नगर में रहने लगे।
भीम ने हराया था इस पराक्रमी पहलवान को
3- पांडवों को विराट नगर में रहते हुए जब तीन महीने बीत गए और चौथा महीना शुरु हुआ, उस समय मत्स्यदेश में ब्रह्ममहोत्सव नाम का एक बहुत बड़ा समारोह हुआ। इस समारोह में हजारों पहलवान एकत्रित हुए। उनमें से एक पहलवान का नाम जीमूत था। वह बहुत पराक्रमी था। उसने अखाड़े में उतरकर एक-एक करके सभी पहलवानों को लड़ने के लिए बुलाया, लेकिन उसका बलशाली शरीर देखकर किसी भी पहलवान की हिम्मत उसके पास जाने की नहीं हुई।
जब कोई भी पहलवान जीमूत से लड़ने को तैयार नहीं हुआ तो राजा विराट ने अपने रसोइए बल्लव (भीम) को उसके साथ लड़ने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा पाकर भीम ने अखाड़े में प्रवेश किया। भीम और जीमूत में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने जीमूत को सौ बार घुमाया और पृथ्वी पर ऐसा पटका कि उसके प्राण निकल गए। यह देखकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भीम के बल-पराक्रम की खूब प्रशंसा की। इधर अर्जुन अपने नाचने, गाने की कला से राजा तथा उनके अंत:पुर की स्त्रियों को प्रसन्न रखते थे। इसी प्रकार नकुल न सहदेव भी अपने-अपने कार्यों से राजा विराट को संतुष्ट रखते थे।
द्रौपदी का रूप देखकर मोहित हो गया था सेनापति कीचक
4- पांडवों को विराट नगर में रहते हुए दस महीने बीत गए। एक दिन राजा विराट के सेनापति कीचक, जो उनका साला भी था, कि नजर महारानी सुदेष्ण की सेवा कर रही सैरंध्री (द्रौपदी) पर पड़ी। द्रौपदी का रूप देखकर कीचक उस पर मोहित हो गया। कीचक ने द्रौपदी के सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन द्रौपदी ने इनकार कर दिया। द्रौपदी ने कहा कि पांच गंधर्व मेरे पति हैं, वे बड़े भयानक हैं और सदा मेरी रक्षा करते हैं। अत: तू अपना विचार त्याग दे, नहीं तो मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे।
द्रौपदी की बात सुनकर कीचक अपनी बहन महारानी सुदेष्ण के पास गया और पूरी बात बताई। कीचक की बात सुनकर महारानी सुदेष्ण ने कहा कि मैं सैरंध्री (द्रौपदी) को अकेले में तुम्हारे पास भेज दूंगी। तुम उसे समझा-बुझाकर प्रसन्न कर लेना। तब कीचक वहां से चला गया।
द्रौपदी कैसे बची कीचक से
5- इस घटना के कुछ दिन बाद महारानी सुदेष्ण ने द्रौपदी से कहा कि मुझे बड़ी प्यास लगी है। तुम कीचक के घर जाओ और वहां से पीने योग्य रस ले आओ, लेकिन द्रौपदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। महारानी सुदेष्ण के आश्वासन देने पर द्रौपदी कीचक के महल में गई। मन ही मन द्रौपदी ने सूर्यदेव का स्मरण किया। सूर्यदेव ने द्रौपदी की रक्षा के लिए गुप्त रूप से एक राक्षस भेजा।
द्रौपदी डरते हुए कीचक के महल में गई। कीचक ने द्रौपदी को अकेला पाकर उसके साथ दुराचार करने का प्रयास किया। तब सूर्यदेव द्वारा नियुक्त राक्षस ने उसे उठाकर दूर फेंक दिया। द्रौपदी दौड़कर राजसभा में चली गई और उसने पूरी बात राजा विराट को बताई। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीम भी बैठे थे। भीमसेन उसी समय कीचक का वध करना चाहते थे, लेकिन युधिष्ठिर ने उन्हें रोक दिया। युधिष्ठिर के कहने पर द्रौपदी महारानी सुदेष्ण के महल में चली गई। वहां जाकर उसने महारानी सुदेष्ण को पूरी बात बताई।
भीम ने बनाई थी कीचक को मारने की योजना
6- उसी रात द्रौपदी गुप्त रूप से भीम के पास गई और कीचक का वध करने के लिए कहा। भीम ने द्रौपदी से कहा कि राजा विराट ने जो नृत्यशाला बनवाई है, वहां रात के समय कोई नहीं जाता। तुम कीचक को किसी बहाने से वहां बुलवा लो। मैं वहीं कीचक का वध कर डालूंगा।
दूसरे दिन द्रौपदी ने ऐसा ही किया और कीचक को रात के समय नृत्यशाला में आने के लिए कहा। रात को कीचक के आने से पहले ही भीम नृत्यशाला में रखे पलंग पर जाकर छिप गए। थोड़ी देर बाद कीचक भी वहां आ गया। उस समय नृत्यशाला में अंधेरा था। कीचक को लगा कि पलंग पर सैरंध्री सो रही है। जैसे ही कीचक पलंग के पास पहुंचा, उसी समय भीम उठकर खड़े हो गए। भीम और कीचक में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने कीचक को पशु की भांति मार डाला। यह देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हुई और नृत्यशाला की रखवाली करने वालों से कहा कि देखो, वहां कीचक का शव पड़ा है। मेरे गंधर्व पतियों ने ही उसका वध किया है।
कीचक के भाई जिंदा जलाना चाहते थे द्रौपदी को
7- सुबह होते-होते कीचक की मृत्यु की खबर महल में तेजी से फैल गई। कीचक के भाई भी वहां एकत्रित हो गए और विलाप करने लगे। तभी उनकी दृष्टि सैरंध्री(द्रौपदी) पर पड़ी। द्रौपदी को देखकर उन्होंने बोला कि इसी के कारण कीचक की ये अवस्था हुई है। इसलिए कीचक के साथ इसको भी जला देना चाहिए। यह विचार कर कीचक के भाइयों ने द्रौपदी को पकड़ लिया और उसे भी श्मशान भूमि की ओर ले गए।
द्रौपदी का विलाप सुनकर भीम पहले ही श्मशान भूमि पहुंच गए। वहां एक बहुत विशाल पेड़ था। भीम ने उसे उखाड़ लिया और कीचक के भाइयों को मारने दौड़े। भीम को विशाल वृक्ष उठाए अपनी ओर आते देख कीचक के भाई डरकर भागने लगे, लेकिन भीम ने सभी का वध कर दिया। भीम के कहने पर द्रौपदी पुन: महल लौट आई। भीम भी दूसरे रास्ते से राजा विराट की रसोई में पहुंच गए।
क्यों डर गए राजा विराट
8- राजा विराट को जब कीचक के सभी भाइयों की मृत्यु का समाचार मिला तो वे बहुत डर गए। उन्होंने अपनी पत्नी रानी सुदेष्ण से कहा कि अब सैरंध्री का यहां रहना उचित नहीं है। सैंरध्री के गंधर्व पति क्रोधित होकर कहीं हमें ही नष्ट न कर दें।
जब द्रौपदी पुन: महल आई तो रानी सुदेष्ण के पास जाकर खड़ी हो गई। तब रानी सुदेष्ण ने उसे किसी दूसरे नगर में जाने के लिए कहा तथा राजा विराट द्वारा कही पूरी बात बता दी। रानी सुदेष्ण की बात सुनकर द्रौपदी बोली कि सिर्फ 13 दिन और मैं आपके साथ इस महल में निवास करूंगी। उसके बाद मेरे गंधर्व पति स्वयं मुझे यहां से ले जाएंगे और आपका भी हित करेंगे।
दुर्योधन को किसने उकसाया विराट नगर पर हमला करने के लिए
9- इधर हस्तिनापुर में दुर्योधन ने पांडवों की खोज में जो गुप्तचर भेजे थे, वे पांडवों को नहीं ढूंढ पाए। यह देखकर दुर्योधन सोचने लगा कि यदि पांडवों ने अज्ञातवास पूरा कर लिया तो वे पुन: हस्तिनापुर लौट आएंगे और अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। इस समय दुर्योधन के साथ कर्ण, दु:शासन, त्रिगर्तदेश के राजा सुशर्मा, शकुनि आदि उपस्थित थे। उसी समय राजा सुशर्मा ने कीचक के वध की बात दुर्योधन को बताई और कहा कि कीचक का वध होने से राजा विराट कमजोर हो गया है।
यदि हम इस समय उस पर आक्रमण करें तो निश्चित ही हमारी जीत होगी और राजा विराट को जीतकर जो रत्न, धन, गांव हम जीतेंगे, उसे आपस में बांट लेंगे। दुर्योधन को राजा सुशर्मा का यह प्रस्ताव पसंद आया और उसने योजना बनाई कि विराट नगर पर दोनों ओर से हमला करेंगे। एक ओर की सेना का नेतृत्व राजा सुशर्मा करेंगे, जबकि दूसरी ओर की सेना का नृतत्व कौरव करेंगे। पहले राजा सुशर्मा विराट नगर पर चढ़ाई करेंगे और उसके दूसरे दिन कौरव सेना। इस प्रकार योजना बनाकर दुर्योधन आदि युद्ध की तैयारी करने लगे।
युद्ध में किसने बचाए थे राजा विराट के प्राण
10- योजना के अनुसार पहले त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा ने विराट नगर पर चढ़ाई की और बहुत सी गाएं कैद कर ली। जब राजा विराट को यह पता चला तो वे भी अपनी सेना लेकर युद्ध भूमि में आ गए। राजा विराट कंक (युधिष्ठिर), बल्लव (भीम), तंतिपाल (सहदेव) व ग्रंथिक (नकुल) की योग्यता देखकर उन्हें भी अपने साथ युद्ध करने के लिए ले आए। राजा विराट और राजा सुशर्मा की सेना में भयंकर युद्ध हुआ। राजा सुशर्मा ने राजा विराट के अंगरक्षकों का वध कर दिया और उन्हें अपने रथ में डालकर ले जाने लगा।
यह देखकर युधिष्ठिर ने भीम से राजा विराट की रक्षा करने के लिए कहा। तब भीम और राजा सुशर्मा के बीच युद्ध होने लगा। भीम ने सुशर्मा के अंगरक्षक सहित बहुत से सैनिकों का वध कर दिया। अंत में भीम ने सुशर्मा को बंदी बना लिया और राजा विराट को मुक्त कर दिया। सुशर्मा को बंदी बनाकर भीम युधिष्ठिर के पास ले गए। युधिष्ठिर ने उसे जीवन दान देकर मुक्त कर दिया। इस प्रकार पांडवों की सहायता से राजा विराट ने वह युद्ध जीत लिया।
शिव के रुदन से जब यहां बन गया था कुंड
हिंदू धर्म विभिन्न मान्यताओं का धर्म है। यह आस्था का धर्म है। हिंदू धर्म की विशालता का अर्थ लगाना मनुष्य के सामर्थ्य से परे है। हिंदू धर्म में तीर्थों का विशेष महत्व है। ऐसे ही तीर्थों में एक तीर्थ है कटासराज। भगवान शिव के पावन तीर्थों में से एक तीर्थ यह भी है। हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार इसे धरती का नेत्र बताया गया है।
यहां से जुड़ी हुई विभिन्न मान्यताएं हैं। शिवपुराण के अनुसार माता सती की मृत्यु पर भूतभावन भगवान भोलेनाथ ने इतना अधिक रुदन किया था जिससे अमृत कुंडों का निर्माण हो गया था। एक अजमेर के निकट पुष्कर में और दूसरा कटासराज में जो कि वर्तमान पाकिस्तान में है।
इस पवित्र तीर्थ से जुड़ी एक मान्यता एक और भी है कि जब पांडव अज्ञातवास में थे तो उन्होंने 14 वर्षों में से 4 वर्ष यहीं व्यतीत किए थे, और इसी कुंड के किनारे वो महान संवाद हुआ था जहां यक्ष के सभी प्रश्नों का उत्तर देकर युद्धिषठर ने अपने भाईयों को जीवित किया था। इन्हीं मान्यताओं के कारण हिंदू धर्म में प्रमुखता से उल्लेख मिलता है। तथा इस तीर्थ का नाम सभी तीर्थों मे सर्वप्रथम लिया जाता है।
भारत पाक विभाजन के बाद यह तीर्थ पाकिस्तान चला गया। वर्तमान में यह पाकिस्तान के चकवाल जिले में आता है। महाशिवरात्रि पर सिर्फ 200 लोगों को भारत सरकार द्वारा यहां जाने की अनुमति है।
कटासराज मंदिर के बाहर बने कुंड की मान्यता है कि यहां पर स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं और मोक्ष प्राप्त होता है। कुंड और यहां का मंदिर पहाड़ियों से घिरे होने की वजह से यहां का दृश्य बहुत ही सुंदर दिखाई देता है।
कटासराज सात मंदिरों की एक श्रृंखला है। जिसमें हनुमानगढ़ी, सतगढ़ी सीता रसोई जिसमें लक्ष्मी नारायण का मंदिर प्रमुख है। इनमें से अधिक मंदिरों को हिंदू राजाओं ने 900 वर्ष पूर्व बनवाया था। पर इनमें से कुछ मंदिरों का निर्माण 6वीं शताब्दी के समय किया गया था। इन मंदिरों में अधिकतर का निर्माण चौकोर मंचों पर हुआ है।
भगवान राम का मंदिर भी इसी श्रंखला में है। यह मंदिर हरिसिंह हवेली की पूर्व दिशा में स्थित है। पूर्व दिशा में ही इसका प्रवेश द्वार है। जिसमें किसी अन्य दिशा से प्रवेश नहीं किया जा सकता है। यहां हनुमानजी का भी मंदिर है जो नितान्त दक्षिण में स्थित है।
भोले को न भाए शंखनाद
यूं तो किसी भी देव या देवी की पूजा शंख की ध्वनि के बिना अधूरी मानी जाती है। पर भगवान शंकर की पूजा में न तो शंख बजाया जाता है और न ही इससे जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं शंख 14 रत्नों में से एक है। समुद्र मंथन के समय इसको निकाला गया था।
शंख अपने आप में दिव्य और पवित्र है। शंख की ध्वनि संपूर्ण वातावरण को निर्मल और चेतन्य बनाती है। प्रत्येक साधना में शंख को विशेष स्थान दिया जाता है। उसके अंदर पंचामृत भरकर के सभी लोगों के ऊपर छिड़का जाता है। इसे भगवान विष्णु ने स्वयं अपने हाथों में धारण किया है।
इसलिए शंख को वरदायक और बहुत ही शक्तिशाली माना गया है। शंख में त्रिदेवों और त्रिदेवियों का निवास माना गया है। इसलिए सभी देवी देवताओं की पूजा में शंख का उपयोगह किया जाता है।
शंख कई तरह के होते हैं जिनमें से तीन प्रमुख माने गए हैं। जो कि क्रमशः दक्षिणावृत्ति शंख, वामवर्ति शंख, मध्यवर्ती शंख। इसके अतिरिक्त भी शंख के अनेक प्रकार है जिनमें प्रमुख रूप से कांटेदार शंख इसे सूर्य शंख भी कहा जाता है।
शंख की आकृति का भी एक गहरा रहस्य है। अगर बहुत छोटे छोटे शंख हों तो उन्हें इच्छापूर्ति वाले शंख माना गया है। मध्यम शंख सिद्धि वृत्ति के लिए माने गए हैं। और बड़े शंख अध्यात्मिक उन्नति पूजा पाठ के लिए माने गए हैं।
शंख जिसके बिना कोई भी पूजा अधूरी मानी गई है। जिसके बारे में धार्मिक ग्रंथों में भी काफी लिखा गया है। क्यों कि पूजा में शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है।
शंख को निधि (धन) का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि शंख को घर में रखने से अनिष्ट का नाश होता है। और सौभाग्य में वृद्धि होती है। शंख बजाने से दूराचार दूर होते हैं। पाप गरीबी दूषित विचार का नाश होता है।
कहते हैं कि अगर शंख में जल भरकर भगवान का अभिषेक कर दिया जाए तो देवता शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान विष्णु को शंख बहुत ही प्रिय है। शंख से जल अर्पित करने पर विष्णु जी अतिप्रसन्न हो जाते हैं।
लेकिन देवों के देव महादेव की पूजा में शंख का प्रयोग वर्जित है। भगवान शिव की पूजा में शंख का उपयोग नहीं होता है। ना ही शिव का शंख से अभिषेक किया जाता है और न ही शंख बजाया जाता है।
कहते हैं कि एक बार राधा गोकुल से कहीं बाहर गईं थीं। उस समय कृष्ण अपनी विरजा नाम की सखी के साथ विहार कर रहे थे। संयोगवश राधा वहां आ गईं। विरजा के साथ कृष्ण को देख राधा क्रोधित हो गईं और कृष्ण और विरजा को भला बुरा कहने लगीं। लज्जा वश विरजा नदी बनकर बहने लगीं।
कृष्ण के प्रति राधा के क्रोध को देखकर भगवान श्री कृष्ण के एक मित्र आवेश में आ गए। वह राधा से आवेश पूर्ण शब्दों में बात करने लगे। मित्र के इस व्यवहार को देख कर राधा नाराज हो गईं। राधा ने श्री कृष्ण के सखा को दानव रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उन्होने भी राधा को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
राधा के श्राप से कृष्ण का मित्र शंखचूड़ नाम का दानव बना। जिसने दंभ नाम के राक्षस के घर जन्म लिया। दंभ ने भगवान विष्णु की तपस्या कर शंखचूड़ को पुत्र रूप में पाया था। जल्द ही शंख चूड़ तीनों लोकों का स्वामी बन बैठा।
वह साधू संतों को परेशान करने लगा। इस कारण से भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध कर दिया। चूकिं वह भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी का भक्त था तो उन्होनें शंखचूड़ की अस्थियों से शंख का निर्माण किया।
शिव ने शंख चूड़ को मारा था। यही वजह है कि शंख भगवान शिव की पूजा में वर्जित माना गया है।
रविवार, 9 मार्च 2014
हरि इसलिए बने शालिग्राम और तभी उनको मिला ये श्राप
पुराणों में एक कथा का उल्लेख हैं कि देवी तुलसी को देवों में सर्वप्रथम पूज्य भगवान गणेश ने शाप दिया। इस शाप के फलस्वरूप वह असुर शंखचूड की पत्नी बनीं। जब असुर शंखचूड का आतंक फैलने लगा तो भगवान श्री हरि ने वैष्णवी माया फैलाकर शंखचूड से कवच ले लिया और उसका वध कर दिया।
इसके बाद भगवान श्री हरि शंखचूड का रूप धारण कर साध्वी तुलसी के घर पहुंचे, वहां उन्होंने शंखचूड की तरह ही बर्ताव किया। तुलसी ने पति को युद्ध से आया देख उत्सव मनाया और उनका स्वागत किया। तब श्री हरि ने शंखचूड के वेष में ही शयन किया।
उस समय तुलसी के साथ उन्होंने सुचारू रूप से हास-विलास करते रहे पर तुलसी को इस बार पहले की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही आकर्षण अनुभव हुआ। तुलसी समझ नहीं सकीं तब उन्होंने पूछा कि तुम काैन हाे, तुमने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया, इसलिए अब मैं तुम्हें शाप दे रही हूं।
तुलसी के वचन सुनकर श्राप के भय से भगवान श्री हरि ने लीलापूर्वक अपना सुन्दर मनोहर स्वरूप प्रकट किया। उन्हें देख और अपने पति के निधन का समाचार सुनकर तुलसी मूर्छित हो गई।
चेतना आने पर उन्होंने कहा कि 'नाथ आपका ह्वदय पाषाण के सदृश है, उसमें तनिक भी दया नहीं है। आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट किया है देव! मेरे श्राप से अब आप पाषाण रूप होकर पृथ्वी पर रहेंगे।
तब भगवान श्री हरि ने कहा- भद्रे। तुम मेरे लिए इस धरा पर रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। अब तुम दिव्य देह धारण कर मेरे साथ सानन्द रहो। मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के लिए यहां पाषाण (शालिग्राम) बनकर रहूंगा और तुम एक पूजनीय तुलसी के पौधे के रूप में पृथ्वी पर रहोगी।
गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा।बिना तुम्हारे मेरी पूजा नहीं हो सकेगी। तुम्हारे पत्रों और मंजरियों में मेरी पूजा होगी। जो भी बिना तुम्हारे मेरी पूजा करेगा वह नरक का भागी होगा।
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